अगस्त में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने अपनी प्रशासन की बहुप्रतीक्षित अफगानिस्तान रणनीति की घोषणा की। अपने भाषण में, उन्होंने अमेरिका के विरूद्ध अफगानिस्तान में काम करने वाले विद्रोहियों को शरण देने में उसकी कथित भूमिका के लिए पाकिस्तान की आलोचना की। इस दावे के साथ कि पाकिस्तान अफगानिस्तान में अराजकता फैला रहा है, ट्रम्प ने कहा कि अमेरिका पाकिस्तान को अरबों अरब डॉलर दे रहा है, लेकिन उसी समय पर वह उन आतंकवादियों को आश्रय दे रहा है जिनसे अमेरिका लड़ रहा है। जैसा कि अमेरिकी राष्ट्रपति ने भी अपने अगस्त भाषण में स्वीकार किया, पाकिस्तान अतीत में अमेरिका का “मूल्यवान भागीदार” रहा है। १९८० के दशक में, पाकिस्तान अफगानिस्तान के सोवियत आक्रमण के दौरान अमेरिका का सहयोगी था । फिर २००१ से आरंभ होने वाले आतंकवाद के विरूद्ध युद्ध को लड़ने के लिए भी इस्लामाबाद ने वॉशिंगटन के साथ हाथ मिलाया। पर हक़ानी नेटवर्क के खिलाफ कोई करवाई न करने के लिए पाकिस्तान पर अमेरिका के आक्रोश एवं नकारात्मक घटनाओं की एक पूरी शृंखला के कारण, जिसमें सलाला चेक पोस्ट घटना और रेमंड डेविस प्रकरण प्रसंग शामिल हैं, अमेरिका-पाकिस्तान संबंध बिगड़ गए हैं। ऐसा लगता है कि इस्लामाबाद ने अमेरिका से दूर जाना का निर्णय लिया है, जो दोनों देशों के मौलिक सामरिक मुद्दों में विचलन और पाकिस्तान के बढ़ते वैकल्पिक सामरिक भागीदारों से प्रेरित है।
पाकिस्तान की शिकायतें
इस्लामाबाद की सोच है कि ट्रम्प प्रशासन ने पाकिस्तान की आलोचना अफगानिस्तान में अमेरिका की गलतियों को ढ़कने के उद्देश से की। विदेश मंत्री ख्वाजा असिफ ने अमेरिकी राष्ट्रपति की टिप्पणी को अफगान तालिबान को हराने के १६ साल लंबे प्रयास की विफलता के लिए पाकिस्तान को “बलि का बकरा” बनाने का प्रयास बताया। पिछले महीने, संयुक्त राष्ट्र महासभा को संबोधित करते हुए, पाकिस्तान के प्रधान मंत्री शाहिद खाकन अब्बासी ने कहा कि वैश्विक स्तर पर आतंकवाद विरोधी अभियान में पाकिस्तान की भूमिका के कारण उसे बहुत नुकसान उठाने पढ़े हैं और भारी बलिदान भी दिए हैं और फिर भी अफगानिस्तान में सैन्य या राजनीतिक गतिरोध के लिए पाकिस्तान को दोषी ठहराया जाना विशेष रूप से दुखद है।
पाकिस्तानी अधिकारियों ने यह स्वीकार किया है कि हो सकता है कि देश ने पहले कुछ ग़लतियाँ की हों लेकिन पिछले कुछ वर्षों में आतंकवाद से लड़ाई के प्रति पाकिस्तान की प्रतिबद्धता स्थिर रही है।
इस्लामाबाद में एक और विवादास्पद मुद्दा यह है पिछले कुछ वर्षों में पाकिस्तान को दिए जाने वाली अमेरिकी आर्थिक और सैन्य सहायता में कटौती। पिछले साल, ओबामा प्रशासन ने पाकिस्तान के लिए गठबंधन सहायता फंड (सीएसएफ) में से ३०० मिलियन डॉलर की सैन्य सहायता पर रोक लगाई। और इस वर्ष ट्रम्प प्रशासन ने ५० मिलियन डॉलर की मदद को रोक जब अमेरिका के रक्षा सचिव जेम्स मैटीस ने हक्कानी नेटवर्क के विरूद्ध पर्याप्त कार्रवाई करने में पाकिस्तान की विफलता पर ज़ोर दिया। हक्कानी नेटवर्क एक आतंकवादी संगठन है जिसका समर्थन करने का इस्लामाबाद पर आरोप है।
यह धारणा कि अमेरिका ने क्षेत्रीय गतिशीलता में भारत-केन्द्रित दृष्टिकोण को अपनाया है पाकिस्तान के लिए दुखद है। उदाहरण के लिए, अमेरिका ने चीन-पाकिस्तान-आर्थिक-कॉरिडोर (सीपीईसी) पर चिंता व्यक्त की है। पिछले हफ्ते, सचिव मैटिस ने सीनेट आर्म्ड सर्विसेज कमेटी को बताया कि यह परियोजना उस क्षेत्र से गुजरती है जिसपर भारत भी दावा करता है। यह पाकिस्तान को संकेत है कि अमेरिका ने भारतीय दृष्टिकोण से क्षेत्रीय भू-राजनीति को देखना शुरू कर दिया है क्योंकि नई दिल्ली ने सीपीईसी और बीजिंग के बड़ी वन बेल्ट वन रोड (ओबीओआर) पहल पर बार-बार अपनी निराशा व्यक्त की है। जवाब में, पाकिस्तान ने सीपीईसी को केवल एक विकास और कनेक्टिविटी परियोजना बताया है जिससे इस क्षेत्र में आर्थिक समृद्धि आएगी। इस महीने की शुरुआत में, वाशिंगटन के एक समारोह में, आंतरिक मंत्री अहसान इकबाल ने चेतावनी दी कि अगर अमेरिका भारत के दृष्टिकोण से इस क्षेत्र को देखता है तो इससे इस क्षेत्र के और अमेरिका के हितों को भी नुकसान पहुँचेगा।
इन घटनाओं से इस्लामाबाद परेशान है क्योंकि अमेरिका ने पाकिस्तान के अच्छे इरादे से किए गए प्रयासों और बलिदानों को स्वीकार नहीं किया है।अपने दशकों पुराने भागीदार के क्षेत्रीय इरादों के बारे में अब पाकिस्तान को भी संदेह होने लगा है। अफगानिस्तान में भारत की भूमिका को बढ़ाने का अमेरिकी उद्देश्य इस्लामाबाद के लिए चिंता का विषय है, एक ऐसा पक्ष जिसपर पाकिस्तान की मानता में ट्रम्प प्रशासन ने गंभीरता से विचार नहीं किया है।
निर्भरता में कमी
इस्लामाबाद वाशिंगटन के साथ बिगड़ते संबंधों से निपटने में सक्षम रहा है क्योंकि अब हथियारों के व्यापार और रक्षा प्रौद्योगिकियों, आर्थिक सहायता, और प्रत्यक्ष निवेश के लिए अमेरिका पर निर्भर नहीं है। उदाहरण के लिए, बीजिंग के साथ उसकी दोस्ती अब एक रणनीतिक और आर्थिक संपत्ति बन गई है। इस्लामाबाद सीपीईसी में ६२ अरब डॉलर डालने की बीजिंग योजना को पाकिस्तान को एक क्षेत्रीय प्रवेश द्वार में परिवर्तित करने के साधन के रूप में देखता है। इसके अलावा, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रमुख नीतिगत मुद्दों पर चीन के समर्थन ( जैसे संयुक्त राष्ट्र में प्रस्ताव पारित कर के मसूद अजहर को एक आतंकवादी करार देने के लिए भारत के प्रयासों को असफल बनाना और आतंकवाद के खिलाफ युद्ध में पाकिस्तानी बलिदान के पक्ष में बोलना) ने पाकिस्तान को अमेरिकी दबाव से सुरक्षित रखा है।
मॉस्को और इस्लामाबाद ने भी अपने द्विपक्षीय संबंधों को बढाना शुरू कर दिया है जो शीत युद्ध के दौरान अविश्वास से भरे थे।२०१४ में पाकिस्तान के विरूद्ध हथियार प्रतिबंध हटाने के बाद, रूस ने अब पाकिस्तान को महत्वपूर्ण सैन्य हार्डवेयर प्रदान करना शुरू कर दिया है। और दोनों पक्षों ने पिछले दो सालों में संयुक्त सैन्य अभ्यास दो बार आयोजित करके अपने कड़वे अतीत को छोड़ने का चयन किया है। दूसरे महान शक्तियों के साथ इन मजबूत संबंधों के कारण, इस्लामाबाद ने मन लिया है कि अब वह अमेरिका की विदेश नीति के उद्देश्य से बंधा नहीं है।
भरते हुए घाव
महत्वपूर्ण सामरिक मुद्दों पर कई नीतिगत मतभेद होने के बाद भी, इस्लामाबाद वॉशिंगटन के साथ अपने संबंधों को पूरी तरह से नहीं तोड़ सकता क्योंकि वह अभी भी वैश्विक महाशक्ति है और पाकिस्तान ने पिछले सात दशकों में इस रिश्ते पर बहुत समय और प्रयास बिताया है।अगर पाकिस्तान हक्कानी नेटवर्क जैसे आतंकवादी संगठनों के खिलाफ कार्रवाई करने की अमेरिकी मांगों पर ध्यान नहीं देगा तो अमेरिकी कांग्रेस पाकिस्तान पर कड़ा रुख अपना कर पाकिस्तान को आतंकवाद का प्रायोजक घोषित करने के लिए कानून पारित कर सकती है। उसी समय पर ट्रम्प प्रशासन को सावधान रहना चाहिए और आतंकवाद के विपरीत पाकिस्तान के प्रयासों की पूरी तरह उपेक्षा नही करनी चाहिए , खासकर जब चीन और रूस के रूप में पाकिस्तान के पास रणनीतिक विकल्प हैं। पर हाल ही में इन रिश्ते में कुछ सकारात्मक गति रही है। पाकिस्तानी सेना ने एक कनाडाई जोड़े को रिहा कर दिया जिसे तालिबान ने पकड़ कर कई वर्षों से पाकिस्तान में रखा था। इस रिहाई ने अस्थायी रूप से कुछ अविश्वास को बहाल किया है क्योंकि राष्ट्रपति ट्रम्प ने इस प्रयास को अमेरिका-पाकिस्तान संबंधों का सकारात्मक क्षण कहा। बहुत सारे अवसर हैं, विशेष रूप से आतंकवाद से लड़ने के क्षेत्र में, जिसमें दोनों पक्षों की ओर से एक ठोस प्रयास पारस्परिक रूप से मनचाहा परिणाम प्रदान कर सकता है। अगर क्षेत्रीय स्थिरता में सुधार करना है, तो दोनों देशों को विश्वास की कमी को घटाने के लिए मिलकर काम करना चाहिए।
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