पिछले महीने बर्न में “परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह” (एनएसजी) पूर्णाधिवेशन में से भारत की सदस्यता पर कोई भी पेशरफ़्त नहीं हुई। परमाणु अप्रसार संधि में राज्यों की सदस्यता पर किसी भी और चर्चा के लिए बैठक इसी साल नवंबर तक स्थगित कर दी गई है। पूर्णाधिवेशन की समाप्ति पर जारी किए गए छोटे से बयान में कहा गया कि “समूह ने एनएसजी में परमाणु अप्रसार संधि (एनपीटी) राज्यों की भागीदारी के तकनीकी, कानूनी और राजनीतिक पहलुओं” पर चर्चा की, भारत के साथ नागरिक परमाणु सहयोग पर 2008 के वक्तव्य को लागू करने के सभी पहलुओं पर विचार करना जारी रखा और भारत के साथ एनएसजी संबंधों पर चर्चा की। भारतीय सदस्यता पर चर्चा में दो चीज़ें हुईं : चीन द्वारा सक्रिय विरोध और संयुक्त राज्य द्वारा सरलीकृत की कमी।
भारत ने एनएसजी के लिए बहुत सक्रिय कूटनीति का प्रयोग किया है । ऐसा परतीत होता है कि भारत कई ऐसे देशों का समर्थन हासिल करने के लिए गतिरत है। उदाहरण के लिए, ब्राज़ील और न्यूजीलैंड जो कभी निष्पक्ष थे, सूचना मिली है कि इन देशों ने भारत के मुद्रा पर अपनी समझ व्यक्त की है, हालांकि उन्होंने अभी तक स्पष्ट समर्थन नहीं दिया है। चीन, आस्ट्रिया, और आयरलैंड जैसे कुछ अन्य देशों ने जो अभी तक अपने पोज़ीशन पर टिके हुए हैं, और भारत की सदस्यता का विरोध किया है।
इसलिए पहली बाधा चीन है। यह जान-बूझकर किया हुआ विरोध है । एनएसजी की सदस्यता हासिल करने के लिए चीन एनपीटी की केंद्रीयता पर ज़ोर देने का दावा करता है। इसका मानना है कि सभी देशों को जो एनपीटी का हिस्सा नहीं हैं, अभेदात्मक आधार पर दो-चरणीय दृष्टिकोण के अधीन होना चाहिए, जिस पर समूह के सभी 48 सदस्यों के बीच सहमति है। लेकिन जैसा कि मैंने पहले ही तर्क दिया है कि चीन की तरफ़ से भारत की सदस्यता के विरोध में एनपीटी कार्ड का प्रयोग सैद्धांतिक से अधिक सामरिक है। चीन पाकिस्तान के साथ भारत की सदस्यता को हाइफ़न करके दो निष्कर्षों में से एक की उम्मीद कर रहा होगा । अगर सर्वसम्मति से समूह परमाणु अप्रसार क्रेडेंशियल्स के आधार पर प्रवेश की अनुमति नहीं देता है तो भारत को पूरी तरह सदस्यता की दौड़ से बाहर रखा जा सकता है । दूसरा, यदि वास्तव में दोनों सदस्य बन जाते हैं, तो पाकिस्तान को वही प्रतीकात्मक वैधता प्राप्त होगी, जो भारत एनएसजी के माध्यम से ज़िम्मेदार परमाणु स्तर की मान्यता के लिए मांग रहा है । अगर पाकिस्तान भी सदस्य बन जाता है तो चीन को अतिरिक्त लाभ होगा क्योंकि भारत के लिए इसकी वैधता का मूल्य कम हो जायेगा ।
चीन भारत को अपने बराबर का नहीं समझता है । अगर भारत एनएसजी की सदस्यता हासिल कर लेता है, तो चीन के बराबर हो जायेगा यानि पी -5 का एक सदस्य और भविष्य के सदस्यों के संबंध में निर्णय ले सकेगा जिनमें से एक पाकिस्तान भी हो सकता है। इसलिए, भारत की सदस्यता को पाकिस्तान से जोड़ने पर न केवल सर्वसम्मति के निर्माण में देरी हो रही है बल्कि यह पाकिस्तान की सदस्यता के मुद्दे पर संभावित भारतीय ‘ना’ को भी संबोधित किया जा रहा है जब भारत समूह का हिस्सा बन जाये ।
वर्तमान भारत-चीन द्विपक्षीय तनाव से चीन का विरोध और बढ़ेगा । जून में, चीन के विदेश मंत्री ली हुइलाई ने कहा था: “न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप (एनएसजी) के बारे में यह नई परिस्थितियों में एक नया मुद्दा है और यह पहले की तुलना में अधिक जटिल है।” हालांकि उन्होंने यह स्पष्ट नहीं किया कि “नए परिस्थितियों” का क्या मतलब है जो स्तिथि को जटिल बना रहा है। यह चीन के बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) से बाहर रहने के भारत के फ़ैसले की तरफ इशारा हो सकता है, क्योंकि यह फ़ैसला चीन के अनुकूल नहीं था । यह तो तब था, अब पूर्णाधिवेशन के बाद , बढ़ते द्विपक्षीय अनबन की स्तिथि में भारत और चीन डोकलाम विवाद में एक सैन्य गतिरोध में फंसे हुए हैं । हालांकि भारत और चीन ने पिछली बार सीमा असहमति से अपने द्विपक्षीय कूटनीति को अलग रखने में किसी हद तक कामयाब हो गए थे, लेकिन अब चीन दोनों मुद्दों को अलग अलग रखने के लिए तैयार नहीं है, खासकर जब इसमें उसका लाभ है । जून तक तो यही था कि कई समस्याएं हैं जिनका एनएसजी से कोई संबंध नहीं है और उनसे भारत की सदस्यता पर चीन की असम्मति मज़बूत नहीं होगी , लेकिन डोकलाम जैसे हालिया घटनाओं ने एनएसजी सदस्यता पर चर्चा की उम्मीद को अब बेमौका बना दिया है । मुख़्तसिर यह कि यहाँ अन्य अधिक महत्वपूर्ण द्विपक्षीय मुद्दे हैं जिन्हें पहले हल किया जाना है ।
भारतीय सदस्यता पर चर्चा को सरलीकृत करने के लिए एक स्पष्ट अमेरिकी रणनीति का अभाव दूसरी बाधा है। ओबामा प्रशासन ने कथित तौर पर अपनी ओर से लॉबियिंग कर के सदस्यता के लिए भारत के आवेदन का समर्थन किया था। ऐसा प्रतीत होता है कि सदस्यता के लिए भारत के प्रयासों का समर्थन करने की नीति ट्रम्प प्रशासन में नहीं बदलेगी, लेकिन राजनयिक पूंजी की सीमा के बारे में बहुत कुछ नहीं सोचा जा रहा है; हो सकता है कि वह भारतीय सदस्यता को सुरक्षित करने के लिए तैयारी कर रहा हो । अमेरिकी विदेश नीति की दिशा तय और निष्पादित करने के लिए सब से पहले हाउस का संगठित होना आवश्यक है । रेक्स टिल्लरसन की अगुवाई में अमेरिकी स्टेट डिपार्टमेंट महत्वपूर्ण पुनर्गठन के दौर से गुज़र रहा है, भारत की एनएसजी सदस्यता की चर्चा प्राथमिकता वाले एजेंडा आइटम के रूप में की जाये इसकी संभावनाएं काफ़ी कम हैं । भारतीय एनएसजी सदस्यता को सरलीकृत करने के लिए एक स्पष्ट अमेरिकी रणनीति की कमी की वजह से बर्न पूर्णाधिवेशन मे कुछ पेशरफ़्त नहीं हुआ और इस चरण में इस विषय पर किसी भी पेशरफ़्त असंभव हो गया । विदेशी नीतिगत चुनौतियों का एक समूह बनाने के अलावा जो भारत और एनएसजी-उत्तर कोरिया, इस्लामिक स्टेट (आईएस), रूस, चीन, ईरान जैसे कुछ देशों की प्राथमिकता कम कर देगा, यह भी सवाल है कि क्या संयुक्त राज्य अमेरिका भारत की तरफ़ से चीन पर दबाव डालने के लिए तैयार होगा या नहीं। पिछले दस दिनों में वॉशिंगटन, डीसी, में नीति निर्माताओं और विश्लेषकों के साथ बैठकें इन निष्कर्षों की पुष्टि करती हैं।
चीन-भारत बढ़ते द्विपक्षीय तनाव के साथ चीन के बढ़ते विरोध और अन्य उच्च-प्रोफ़ाइल चुनौतियों में व्यस्त अमेरिकी विदेश नीति को देखते हुए, एनएसजी की सदस्यता के लिए एक सफ़ल भारतीय प्रयास निकट अवधि में ठंडे बस्ते में जाता दिख रहा है । ब्राज़ील और न्यज़ीलैंड जैसे देशों को इसकी सदस्यता के संबंध में पहले से ही भारत को भेजे गये तथाकथित सकारात्मक संकेतों के अलावा किसी विशेष कार्य के लिए एक मज़बूत प्रतिबद्धता प्रदर्शित करने का कोई कारण नहीं है न ही ऑस्ट्रिया और आयरलैंड जैसे विरोध करने वालों के पास इस मुद्दे पर बहस करने का कारण है, जबकि चीन और संयुक्त राज्य अमेरिका दोनों अपने अपने कारणों से भारत की प्रवेश रोके हुए हैं ।
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Image 1: Nuclear Suppliers Group website
Image 2: Kim Kyung-Hoon-AFP, via Getty Images