दक्षिण एशिया में भारत और चीन के बीच सामरिक प्रतिस्पर्धा, विशेष रूप से हिंद महासागर में चीन की “स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स” रणनीति के कारण, उनके द्विपक्षीय संबंधों को रेखांकित करने वाले तत्वों में प्रमुख है। दोनों देशों में एक दूसरे से निपटने के इरादों, क्षमता, और नीति पर चर्चा हो रही है।
भारत में सर्वसम्मति की कमी साउथ एशियन वॉइसिज़ की श्रृंखला “भारत-चीन संबंध: उतार चढ़ाव” के तीन लेखों से स्पष्ट है।तुनीर मुखर्जी के अनुसार, एक ऐसे चीन के साथ संबंध रखने के लिए, जिसने भारत की रणनीतिक कक्षा के सभी देशों को लुभा लिया है, भारत को अपने रणनीतिक स्वायत्तता के सिद्धांत को बदलना होगा। डोकलाम गतिरोध के बाद हुई घटनाओं पर ध्यान केंद्रित करते हुए, नाज़िया हुसैन केहती हैं कि यदि डोकलाम द्विपक्षीय संबंधों को परिभाषित करता रहा तो दोनों देशों के पास खोने के लिए बहुत कुछ है और इसलिए यदि दोनों देशों इस गतिरोध से आगे बढ़ बाहर जाते हैं, और लगता भी है कि दोनों ऐसा करना चाहते हैं, तो डोकलाम विवाद उनके द्विपक्षीय संबंधों को परिभाषित करने वाली घटना नहीं होगा। इसी तरह की व्यावहारिक स्थिति के वकालत करते हुए कश्यप अरोड़ा और रिमझिम सक्सेना का मानना है कि यदि भारत और चीन के आर्थिक संबंधों को सशक्त बनाया जाए तो दोनों देशों को लाभ होगा, विशेष रूप से भारत को।
चीन में भी इसी तरह के वाद-विवाद चल रहे हैं। चीनी नीति समुदाय दो गुटों में बटा हुई है: एक गुट का मानना है कि चीन को कठोर दृष्टिकोण अपनाते हुए भारत को अपनी भू-राजनीति और आर्थिक श्रेष्ठता मनवाने के लिए भारत पर दबाव डालना चाहिए, और दुसरे का मानना है कि चीन को एक समझौताकारी रास्ता अपनाकर भारत को अपने साथ सहयोगी और सहकारी संबंध बनाने के लिए लुभाना चाहिए। दोनों देशों में अंतिम नीति इन दोनों प्रस्तावों का संयोजन होंगी, पर हर प्रस्ताव का वजन घरेलू और क्षेत्रीय राजनीतिक परिस्थिति के साथ साथ बदल सकता है।
ऐसा लगता है कि चीन और भारत इस वास्तविकता को मानने में नाकाम रहे हैं कि दोनों देशों को, जो बढ़ती राष्ट्रीय शक्ति और अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा के प्रक्षेप पर हैं, इस क्षेत्र में एक साथ रहना होगा। और एक दूसरे की भूमिका के बारे में ऐसी धारणा रखना कि एक की जीत दूसरे की हार है उनकी दुश्मनी में वृद्धि का कारण बनेगा। जहाँ भारत दक्षिण एशिया में अपनी मुख्यता और नेतृत्वता को बनाए रखने का इच्छुक है, चीन ने भारत की पारंपरिक भूमिका को सम्मान और जगह न दे कर भारत की चिंता बढ़ाई है और अपने क्षेत्रीय आर्थिक अभियान बेल्ट और रोड के प्रति प्रतिरोध पैदा किया है। वैसे तो दोनों देशों के वैश्विक स्तर पर सहयोग करने में मूल्य दिखाई देता है, इसलिए क्योंकि दोनों ग्लोबल नार्थ में उभरती शक्तियाँ हैं, लेकिन इस तरह के पारस्परिक हितों ने दोनों के बीच क्षेत्रीय और द्विपक्षीय स्तरों पर अविश्वास और टकराव कम नहीं किया है–उन्हें खत्म करना तो दूर की बात है।
चारों विद्वानों ने घटनाओं के इस नकारात्मक चक्र को हल करने के लिए महत्वपूर्ण सुझाव दिए हैं। मुखर्जी के अनुसार, भारत को चीनी सामरिक अतिक्रमण का सामना करने के लिए अपनी सामरिक स्वायत्तता को त्यागना होगा और संरेखण की अपनी पसंद को बदलना होगा। लेकिन चीन के संसाधनों को देखते हुए इस तरह के साहसी कदम से भारत की विदेशी और सुरक्षा नीतियों पर नकारात्मक प्रभाव पढ़ सकता है। हुसैन और अरोड़ा और सक्सेना के प्रस्ताव के अनुसार, राजनीतिक और आर्थिक तस्वीर पर ध्यान केंद्रित करने से भारत को लघु- और मध्य-अवधि में लाभ प्राप्त हो सकता है। फिर भी, इस तरह की रणनीति के सफल परिपालन के लिए भारत को चीन के बारे में अपनी कुछ मौलिक धारणाओं और चीन और भारत के संबंधों के माध्यम, लक्ष्य, और उद्देश्यों को बदलने की आवश्यकता है, ताकी भारत शोषण और शिकायत की भावना से बचे। इनमें से कोई भी रास्ता आसान नहीं होगा।
दोनों देशों के अन्य महत्वपूर्ण द्विपक्षीय संबंधों की तुलना में, भारत और चीन के बीच आधिकारिक / अनौपचारिक संवाद और रणनीतिक संचार का स्तर और दायरा आश्चर्यजनक रूप से कम हैं। ईमानदार बातचीत और एक-दूसरे के इरादों और दृष्टिकोण की सटीक समझ के बिना, दोनों देशों के बीच स्वीकार्य व्यवस्था पर वार्ता और समझौता सफल या टिकाऊ होने की संभावना नहीं है। इस दिशा में, दोनों देशों के विद्वानों को अभी भी लंबा सफर तय करना है।
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Image: MEA India via Twitter