किसी भी देश का पहला अंतरराष्ट्रीय संपर्क बिंदु अपने पड़ोसियों के साथ होता है। इस प्रकार, किसी भी देश के विदेश नीति उन्मुखीकरण में पड़ोसी से अच्छे संबंध उतने ही मूलभूत है जितना कि राष्ट्रीय हित। पड़ोसियों के साथ अच्छे संबंधों की इच्छा करना बोधगम्य है। बल्कि ऐसी भावना को व्यक्त न करना किसी भी सरकार के लिए राजनयिक गलती होगी। हालांकि, इस सौम्य भावना और मूलभूत विदेशी नीति अनिवार्यता को प्रभावी नीति में बदलना एक चुनौती है। दक्षिण एशिया में भारत की भौगोलिक केन्द्रीयता और आसपास के अन्य छोटे देशों से उच्च क्षमता के कारण भारतीय वर्चस्व का डर बना रहता है। यह भारत और चीन के बीच संतुलन के तरीके ढ़ूँढ़ने के लिए भारत के पड़ोसियों की प्रवृत्ति बताती है। भूटान भी बीजिंग के प्रभाव से सुरक्षित नहीं है। इस प्रकार, भारत के आस-पास के छेत्र में चीन की बढ़ती उपस्थिति और दक्षिण एशियाई पड़ोसियों के साथ संबंधों की प्रकृति अब भारत की पड़ोस नीति की प्रभावशीलता को मापने के लिए महत्वपूर्ण मानदंड बन गए हैं। इस परिदृश्य में, सुसंगत क्षेत्रीय और पार-क्षेत्रीय विकल्पों का निर्माण ही भारत का जवाब है, जिसमें केवल दक्षिण एशिया के पड़ोसी ही नहीं बल्कि भारत-प्रशांत क्षेत्र के विस्तारित पड़ोस देश भी शामिल हैं।
भारत की क्षेत्रीय और वैश्विक आकांक्षाओं को उसकी निकट पड़ोस को संभालने की क्षमता देख कर समझा जा सकता है। हालांकि, दक्षिण एशिया में गतिशीलता को देखते हुए, नई दिल्ली को अपने कठिन पड़ोस में उन देशों के साथ भी मिल कर आगे बढ़ना होगा जो उसके हितों के विपरीत हैं –चाहे वह मुख्य शक्ति के हस्तक्षेप के रूप में हो चाहे शत्रुतापूर्ण संबंधों के रूप में हो या चाहे हिंसक चरमपंथी संगठनों के रूप में, जिन्होंने भारत को क्षति पहुँचाने के लिए इस क्षेत्र में पनाह ली हुई है। अपनी पहली भूटान विदेशी यात्रा के दौरान प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने इस चिंता को स्पष्ट किया जब उन्होंने कहा कि देश की ख़ुशी के लिए यह महत्वपूर्ण है कि पड़ोसी किस तरह के हैं, क्योंकि सभी सुख और समृद्धि होने के बाद भी शायद शांति न मिले।
चीन के साथ पाकिस्तान की दोस्ती को भारत को रोकने का उपाय माना जाता है। पाकिस्तान की सैन्य क्षमता को बढ़ाने के लिए चीनी सहायता, और इसी तरह की कुछ नई राजनीतिक-आर्थिक घटनाएँ, जैसे चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा और ग्वादर बंदरगाह, भारत के लिए चिंता का विषय हैं। इसके अलावा, दक्षिण एशियाई देशों में चीन का विकास और इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए सहायता (विशेष रूप से श्रीलंका और बांग्लादेश में बंदरगाह विकास परियोजना और नेपाल में सड़क और रेलवे परियोजना) नई दिल्ली के लिए चिंताजनक हैं। इस समस्या का समाधान नई दिल्ली के लिए एक पहेली है: भारत उस स्तर पर नहीं है जहाँ वह बीजिंग कि तरह अपनी आर्थिक शक्ति दिखा सके, लेकिन सैद्धांतिक रूप से उसको यह अधिकार भी नहीं है कि वह किसी भी दक्षिण एशियाई देश के चीनी सहायता को स्वीकार करने पर आँख दिखाए। इसके विपरीत, कई दक्षिण एशियाई देशों को भारत और चीन के बीच संतुलन बनाए रखने में सामरिक तर्क मिल रहा है क्योंकि इससे नई दिल्ली के प्रभाव को कम किया जा सकता है। भारत की पूर्व विदेश सचिव निरुपमा राव ने तर्क दिया है कि भारत का पड़ोस उस समय तक मुश्किल रहेगा जब तक पड़ोसी उन प्रवृत्तियों को बढ़ावा देते रहेंगे जिनके अनुसार भारत को निशाना बनाने से उनकी सुरक्षा और कल्याण में वृद्धि होगी।
बेल्ट एंड रोड फोरम में, जो इस वर्ष की शुरुआत में चीन में आयोजित हुआ था और जिसका भारत ने बहिष्कार किया था, भूटान को छोड़कर भारत के सभी दक्षिण एशियाई पड़ोसियों ने भाग लिया। भारत के लिए विकल्प की तलाश का मतलब भारत-म्यांमार-थाईलैंड त्रिपक्षीय राजमार्ग परियोजना, कलादान मल्टी-मॉडल ट्रांजिट ट्रांसपोर्ट प्रोजेक्ट और बंगाल की खाड़ी बहु-क्षेत्रीय तकनीकी और आर्थिक सहयोग उपक्रम (बिम्सटेक) जैसी परियोजनाओं है, जिनके माध्यम से उसने अपने विस्तारित पड़ोस तक अपनी पहुँच बढ़ाई है। दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के साथ चीन के आर्थिक संबंधों का स्तर इस क्षेत्र में भारत के हित अधिकतमकरण के लिए एक चुनौती है। लेकिन दक्षिण-पूर्व एशियाई देश भी भारत जैसे देशों के साथ साझेदारी के माध्यम से की बढ़ती सुरक्षा प्रोफ़ाइल को संतुलित करने का इरादा रखते हैं। चाबहार बंदरगाह पर भारत-ईरान-अफगानिस्तान समझौता, जिसको ग्वादर पोर्ट के प्रति देखा जाता है, हाल में भारत से अफ़ग़ानिस्तान गेहूं की पहली शिपमेंट के साथ कुछ प्रकाश में आया है। नई दिल्ली भी भारत-प्रशांत क्षेत्र में जापान जैसे समान विचारधारा वाले देशों के साथ भागीदारी से एशिया-अफ्रीका ग्रोथ कॉरिडोर जैसे उपक्रम तैयार करना चाहता है।
हाल ही में, हिंद महासागर में चीनी पनडुब्बियों और युद्धपोतों का नियमित प्रवेश देखा गया है। प्रमुख शक्तियों के लिए भू-राजनीतिक थियेटर के रूप में भारत-प्रशांत क्षेत्र के उदय के कारण, भारत, अमेरिका, जापान और अब ऑस्ट्रेलिया के बीच चतुष्कोणीय वार्ता जैसे कई पहल सामने आए हैं, जिसका उद्देश्य आक्रामक चीन के उदय का सामना करना है। भारत, अमेरिका, और जापान पहले से ही एक समान रणनीतिक उद्देश्य के साथ मालाबार जैसे प्रमुख अन्तरसंक्रियतायों में लगे हुए हैं। इसके अलावा, भारत वियतनाम और सिंगापुर जैसे दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के साथ अपने सैन्य सहयोग को बढ़ा रहा है। नई दिल्ली ने भारतीय महासागर के तट पर बसे देशों के साथ अधिक समझदारी के लिए पहल की है और नए “नौसेना कूटनीति कोष” के माध्यम से भारतीय महासागर के छोटे देशों को सहायता दी है। अपने पड़ोस में चीन के विस्तार के बीच अपनी स्थिति सुधारने के लिए भारत के यह बदलाव कैसे मदद करेंगे, यह अभी देखना बाकी है। हालांकि, भारत-प्रशांत क्षेत्र में द्विपक्षीय और बहुपक्षीय पहल के माध्यम से अपने विदेश नीति विकल्पों को बढ़ाने की कोशिश यह दर्शाती है कि भारत अपनी संभवनीय क्षमता को संचालित कर के एक महत्वपूर्ण वैश्विक शक्ति के रूप में उभरना चाहता है।
जिस तरह भारत अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में एक प्रमुख शक्ति बनने की मंशा और क्षमता दोनों को दर्शा रहा है, यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि भारत अपने निकट पड़ोसियों के साथ कैसा संबंध बनाए रखता है। भारत को एक मुश्किल पड़ोस में उभरने के लिए अंतर-उपमहाद्वीपीय गतिशीलता से उत्पन्न अंतर्निहित बाधाओं के निदान के साथ-साथ अतिरिक्त-क्षेत्रीय खिलाड़ियों की भागीदारी की भी जरूरत होगी। अपने निकट पड़ोस में भारत की छवि हमेशा एक बड़े भाई (big brother) की रहेगी– इसका मतलब दूसरों की आंतरिक मामलों में गैर-हस्तक्षेप के सिद्धांत के साथ साथ भारत को अपने नीति संबंधी प्राथमिकता को आकार देने की क्षमता को बनाए रखना होगा। रणनीतिक धमकी के साथ आर्थिक प्रोत्साहन के माध्यम से दक्षिण एशिया में चीन की बढ़ती मौजूदगी से भारत की इस कोशिश में बाधा आई है। जवाब में, भारत की रणनीति यह होनी चाहिए कि वह भारत-प्रशांत क्षेत्र में उन देशों के साथ सुरक्षा साझेदारी का निर्माण करे जो चीन की आक्रामकता से चिंतित हैं ताकि भारत के हितों को नुक्सान पहुँचाने वाली गतिविधियों में चीन का लिप्त होना मुश्किल हो जाए। इसके अतिरिक्त, अपने विस्तारित पड़ोस के साथ संबंधों से फायदा उठा कर भारत अपने पड़ोसी देशों के लिए विकास के वैकल्पिक मार्ग अपनाने में मदद कर सकता है, और यह चीनी परियोजनाओं की तुलना में अधिक पारदर्शी और पारस्परिक रूप से लाभकारी तरीकों से करना होगा, क्योंकि चीनी परियोजनाओं को कर्ज में फँसाने का जाल और बीजिंग के वर्चस्व के एकमात्र रास्ता के तौर पर देखा जा रहा है। इससे भारत और उसके निकट पड़ोसियों के विकास की एक संयुक्त नियति पर फिर से सोचने में मदद मिलेगी, जिससे अधिक स्थायी संबंधों का निर्माण होगा और भारत के उदय में यह देश भागीदार भी बनेंगे।
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Image 1: Mahinda Rajapaksa via Flickr
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