
मालदीव के पूर्व राष्ट्रपति और अब निर्वासित नेता मोहम्मद नशीद ने हाल ही में द वायर से बात करते हुए जोर दे कर कहा कि भारत को पड़ोस पर और ध्यान देना चाहिए क्योंकि यह भारत का पड़ोस है। मालदीव में लोकतंत्र और सामान्यता बहाल करने के लिए राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन पर दबाव डालने के लक्ष्य से, नाशीद भारत के हस्तक्षेप की मांग करते रहे हैं, लेकिन इस हद तक भी नहीं कि भारत वहाँ सेना तैनात कर दे। यह राजनीतिक तूफान तब शुरू हुआ जब राष्ट्रपति यमीन ने विपक्षी कैदी नेताओं को आज़ाद करने के सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को खारिज कर दिया। इसके अलावा, उन्होंने द्विप में आपातकाल की घोषणा कर दी, और दो न्यायाधीशों और पूर्व राष्ट्रपति एवं अपने सौतेले भाई मौमून अब्दुल गयूम को गिरफ्तार कर लिया।
मालदीव की राजनीतिक उथल पुथल का एक क्षेत्रीय पहलू भी है, क्योंकि इस क्षेत्र में भारत और चीन दोनों का निवेश है। मालदीव का भौगोलिक स्थान स्वाभाविक रूप से उसे भारत के रणनीतिक प्रभाव के क्षेत्र में लाता है। दूसरी ओर, अवसंरचना के निवेश के माध्यम से हिंद महासागर में रणनीतिक पकड़ मज़बूत करने के लिए चीन की बढ़ती महत्वाकांक्षा मालदीव को बीजिंग की योजना का स्वाभाविक भागीदार बना देती हैं। किसी भी छोटे देश की तरह, मालदीव के लिए भी यही रणनीतिक समझदारी होगी कि वह दोनों भारत और चीन को लुभाए।
अपने पड़ोस से निपटना भारत के लिए एक निरंतर विदेश नीति सिरदर्द होगा और मालदीव का मुद्दा कुछ अलग नहीं है। यह पहली बार नहीं है कि नई दिल्ली अपने पड़ोस को नियंत्रित करने में असफल रहा है, और न ही यह आखिरी बार होगा।
यामीन की अगुवाई में मालदीव की विदेश नीति के रुख ने भारत को एक जानी पहचानी दुविधा में डाल दिया है जहाँ भारत अपने पड़ोस में बड़े भाई की छवि को प्रदर्शित किए बिना अपने अनुकूल परिणामों को प्रभावित करने की कोशिश कर रहा है। कई दक्षिण एशियाई देशों की तरह, मालदीव को अपनी आर्थिक सहायता पर निर्भर बनाने की चीन की क्षमता ने भारत के रणनीतिक प्रभाव को कम कर दिया है। मिसाल के तौर पर, पाकिस्तान के बाद, मालदीव दक्षिण एशिया का वह दूसरा देश बन गया है जिसने चीन के साथ मुक्त व्यापार समझौता किया है, बावजूद इसके कि जिस जल्दबाजी में इस समझौते को मालदीव की संसद में पारित किया गया उससे मालदीव की मुख्य विपक्षी पार्टी नाखुश है। और तो और, चीन की महत्वाकांक्षी बेल्ट और रोड योजना पर भी मालदीव ने हस्ताक्षर किए हैं जो कि भारत को अच्छा नहीं लगा होगा। अपने अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे के उन्नयन के लिए अनौपचारिक ढंग से भारतीय कंपनी जीएमआर के साथ सौदा ख़तम करने के बाद, माले ने एक चीनी कंपनी को वह योजना देने का फैसला किया। इसके अलावा, मालदीव ने भारत द्वारा आयोजित बहुराष्ट्रीय मिलान नौसैनिक अभ्यास में शामिल होने का निमंत्रण अस्वीकार किया। यह बात नई दिल्ली की पुनर्जाग्रहित भारतीय महासागर कूटनीति के लिए अच्छी नहीं है, जिसका उद्देश्य भारत को कुल सुरक्षा प्रदाता के रूप में स्थापित करना और हिंद महासागर क्षेत्र में चीन के हमलों का जवाब देना है।
यमीन के कार्यकाल में जिस तरह से चीजें हुई हैं उस पर भारत ने पूर्व राष्ट्रपति नशीद को राजनीतिक जगह दे कर अपनी नाराजगी जता दी है। और तो और, नई दिल्ली ने राष्ट्रपति यमीन के एक विशेष प्रतिनिधि के दौरे को नकार दिया। मालदीव में भारतीय प्रवासियों की सुरक्षा की मांग के अलावा, भारतीय विदेश मंत्रालय ने स्पष्ट रूप से मालदीव के सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का समर्थन भी किया। दूसरी ओर, चीन ने भी अपेक्षित पक्ष लिया और कहा कि वह मालदीव के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने में विश्वास नहीं करता और चीन का मानना है कि मालदीव की सरकार इतनी योग्य है कि वह समस्या को उचित रूप से सुलझा सके और कानून के अनुसार देश को सामान्य अवस्था पर लौटा सके।
भारत की भौतिक क्षमताओं में वृद्धि से इस क्षेत्र में और विश्व स्तर पर भारत की समग्र स्थिति में निश्चित रूप से सुधार आया है। हालांकि, किस हद तक नई दिल्ली अपने भौतिक विकास और राजनयिक संसाधनों का इस्तेमाल करके अपने पड़ोस को प्रभावित कर पता है, इस पर अभी भी संदेह है। मालदीव में ऐसा करने के लिए भारत को दो बाधाओं का सामना करना पढ़ेगा। पहला, चीन की रणनीतिक क्षमता इतनी है कि वह हिंद महासागर तक अपना प्रभाव बढ़ा सकता है। दूसरा, मालदीव की अपनी रणनीतिक सोच यह होगी कि भारत से अपनी शक्ति असमानता को संतुलित करने के लिए वह चीन के साथ संबंध बढ़ाए।
भारत के पड़ोस में लोकतांत्रिक बदलाव का भारत की विदेशी नीति पर गहरा प्रभाव पड़ेगा, चाहे यह बदलाव नेपाल में हो या मालदीव में। मालदीव में उभरती हुई गतिशीलता उस सरकार के छमताओं लिए एक परीक्षा है जिसने पहले दिन से ही पड़ोस को महत्व देने की नीति अपनाई है। नई दिल्ली ऐसा क्या कर सकती है ताकि इस क्षेत्र की सरकारें ऐसा कुछ न करें जो भारत के हितों के लिए हानिकारक हो? अपने पड़ोस में सैन्य हस्तक्षेप भारत के लिए कुछ नया नहीं होगा, क्योंकि इससे पहले १९७१ के बांग्लादेश युद्ध और १९८८ में मालदीव के ऑपरेशन कैक्टस में भारत सैन्य हस्तक्षेप कर चुका है। समय समय पर अपनी राजनीतिक संपत्तियों को नियंत्रित करने और बचाए रखने की नई दिल्ली की क्षमता संतोषजनक नहीं रही है। समय-समय पर, तथाकथि प्रभाव के क्षेत्र में परिणामों को आकार देने की भारत की क्षमता गंभीर रूप से सीमित रही है। क्या यह मालदीव में भी दोहराया जाएगा या फिर भारत को अपनी ग़लतियों का एहसास होगा, यह अभी देखना बाकी है।
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Image 1: The President’s Office, Republic of Maldives
Image 2: Fred Dufour/AFP via Getty Images