२६ मई, २०१४ को जब प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी का शपथ ग्रहण हुआ और उन्होंने कार्यभार संभाला, तो कई लोगों ने आश्चर्य व्यक्त किया कि कैसे एक प्रांतीय नेता दुनिया के साथ भारत के संबंधों को मज़बूत कर सकता है? उनका नई दिल्ली में लगभग कोई अनुभव नहीं था क्योंकि उन्होंने अपना अधिकांश समय गुजरात में एक वरिष्ठ राजनेता के रूप में बिताया था। उनके आलोचक चिंतित थे कि वह वैश्विक स्तर पर खुद को कैसे पेश करेंगे?
तीन साल बाद यह चिंताएं शायद भूली बिसरि यादें लगें , लेकिन उन्हें ध्यान में रखना सहायक होगा, भले ही केवल यह याद दिलाने के लिए कि मोदी कितनी दूर आ गये हैं। आज, मोदी न केवल दुनिया घुमने वाले नेता के रूप में उभरे हैं बल्कि उन्होंने विदेश नीति को भी सर्वोच्च प्राथमिकता देते हुए उसे भारत की आर्थिक गति-रेखा से जुड़ दिया है। इसी पृष्ठभूमि में यह लेख इस बात का आकलन करेगा कि मोदी के नेतृत्व में भारतीय कूटनीति किस तरह विकसित हुई है, जो अब अपने पांच वर्षीय कार्यकाल का आधे से अधिक समय गुज़ार चुके हैं, और वह आगे यहां से कहाँ जाने वाले हैं। अवश्य कुछ हि लोग इस बात को नकारेंगे कि मोदी के शासन एजेंडे में विदेश नीति अधिक सफल रही है– उन्होंने वैश्विक महत्वाकांक्षाओं को जगह दी है और भारत की सकारात्मक कहानी को विदेश में लोकप्रिय बनाया है । मोदी के दौर में भारत की विदेश नीति की एक बुनियादी पुनर्संचना होती नज़र आ रही है।
सार्वजनिक कूटनीति
इस सिलसिले में पहली बात तो स्वयं प्रधान मंत्री के बारे में है । जबकि प्रधान मंत्री के कार्यालय ने विदेशी एजेंडा को स्थापित करने में एक प्रमुख भूमिका निभाई है, मोदी ने स्वयं भारतीय कूटनीति की बागडोर को एेसे संभाला है जिसका जवाहरलाल नेहरू के बाद से अब तक कोई जोड़ नहीं है। अपनी सेल्समैन और शोमैन प्रतिभा का उपयोग करते हुऐ उन्होंने भारत जैसी सशक्त सभ्यतागत शक्तिी को देशों के साथ केसै बर्ताव करना चाहिए, इस दृष्टि को साकार करने का प्रयास किया है। यह बात उनके उद्घाटन से साफ़ स्पष्ट हो गई थी, जिसमें पड़ोस के नेताओं ने भाग लिया और जो एक सम्राट की ताजपोशी से कम नहीं था।
मोदी की विदेश यात्रायें हमेशा सार्वजनिक और भव्य रही हैं और जब भी वह खुद राज्य के किसी महत्वपूर्ण प्रमुख की मेजबानी करते हैं तो वह किसी प्रदर्शनी से काम नहीं होता। पिछले भारतीय नेताओं का भी विदेशी राजधानियों में बहुत धूम धाम से स्वागत किया गया जाता था, और दिल्ली ने पहले भी कई विश्व नेताओं की मेजबानी की है। लेकिन मोदी ने अपने ऐतिहासिक जनादेश के बल पर इनमें चार चाँद लगा दि है और अपने भाषणों और सेल्फीयों के साथ वह एक रॉक स्टार की तरह देखे जाते हैं।
इसका एक परिणाम यह हुआ है कि भारत की सार्वजनिक कूटनीति अंततः नौकरशाही से निकल कर अधिक अभिनव नवीन और जनता के अनुकूल हो गई है। इस बात का एक अच्छा उदाहरण यह है कि विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने अपने कार्यालय को विदेश में रहने वाले भारतीयों के पहुंचने योग्य बनाने के लिए ट्विटर का प्रभावी ढंग से इस्तेमाल किया है, जो यह दर्शाता है कि विदेशी नीति सिर्फ संधियों और वार्ताओं तक ही सीमित नहीं है बल्कि अंततः इसका काम नागरिकों के हितों की सेवा और सुरक्षा करना है।
सॉफ्टवेयर की उन्नति या नया हार्डवेयर?
विशिष्ट नीतियों के संदर्भ में, मोदी ने वास्तव में कोई बड़ा परिवर्तन नहीं किया है। सभी प्रमुख पहल और नीति निर्माण, चाहे नेबरहुड फर्स्ट, एक्ट ईस्ट, लुक वेस्ट, अफ्रीका से संबंध बढ़ाना, डायस्पोरा के साथ संबंध, या भारत को एक भारतीय महासागर की शक्ति के रूप में पुनर्निर्मित करना, सब विदेश मंत्रालय (MEA) की पुस्तक में दशकों से है। इन विचारों को पुनर्जीवित करने का श्रेय निश्चित रूप से मोदी को दिया जाना चाहिए, लेकिन क्या यह सिर्फ सॉफ्टवेयर उन्नयन है या दिल्ली की विदेश नीति का पुनर्निर्माण हो रहा है?
अभी निश्चित रूप से इस प्रश्न का उत्तर देना मुश्किल है, लेकिन जिस तरह से मोदी ने एक तरफ पाकिस्तान के साथ और दूसरी तरफ अमेरिका और इज़राइल के साथ भारत के संबंधों को आगे बढ़ाया है, यह कुछ दिलचस्प संकेतक हैं। पाकिस्तान के साथ उन्होंने शुरू में संबंध पुनर्जीवित करने का प्रयास किया लेकिन जब उससे वांछित परिणाम नहीं मिला तो उन्होंने अपना तरीक़ा बदल दिया। पिछले साल उन्होंने “सर्जिकल स्ट्राइक” का आदेश दिया और तब से पाकिस्तान में आतंकवादी लांच पैड पर पूर्ववर्ती हमलों की कुछ रिपोर्ट सामने आई हैं। क्या यह पाकिस्तान के प्रति एक नई नीति का संकेत है या सिर्फ यह है कि सरकार विभिन्न विकल्पें जाँच रही है ? यह कहना मुश्किल है, लेकिन यह उल्लेखनीय है कि मोदी विभिन्न उपकरणों का परीक्षण करने के लिए कम से कम इच्छुक हैं, जिसके लिए अधिकांश लोग तैयार नहीं थे।
अमेरिका और इज़राइल के साथ उन्होंने वास्तव में कोई विपरीत काम नहीं किया है, बल्कि उन्होंने मौजूदा रुझानों को ही आगे बढ़ाया है। पर उन्होंने पिछली नीतियों के उस बोझ को त्याग दिया है जो उनके पुरख छोड़ने को अनिच्छुक थे और ऐसे कदम उठाए हैं जो उनके अनुसार सबसे अच्छी तरह से भारत के राष्ट्रीय हितों को लाभ पहुंचा सकते हैं।
उदाहरण के तौर पर , उन्होंने अमेरिका के साथ शीत युद्ध के व्यापक सिद्धांतों को छोड़ कर द्विपक्षीय संबंधों को मजबूत बनाया है , क्योंकि उनका मानना है कि यह साझेदारी भारत के विकास के लिए महत्वपूर्ण है। आलोचकों को चिंता है कि भारत अमेरिका से अधिक करीब हुआ तो अमेरिका और चीन की लड़ाई में फँस जाएगा और अपने पुराने दोस्त रूस को दूर कर देगा। लेकिन मोदी को भरोसा है कि भारत पुरानी विचारधारा के बिना भी अपने हितों की रक्षा कर सकता है। और इस तरह, उनकी सरकार ने भी जान बूझ कर गुट निरपेक्ष आंदोलन (NAM) को महत्व नहीं दिया है । निश्चित रूप से , नेहरू इसके संस्थापक सदस्यों में से एक थे और यह भारतीय राजनयिक इतिहास के लिए गर्व की बात है, लेकिन इसकी वैधता कब की ख़त्म हो चुकी है और ऐसा कोई कारण नहीं है कि भारत कुछ और दावा करे ।
इसी प्रकार मोदी ने पुराने दोस्त के रूप में इसराइल के यहूदी राष्ट्र को स्वीकार किया है और फिलिस्तीन से इसको अलग रखने का एक सावधानीपूर्वक प्रयास किया है । निजी तौर पर दोनों ही प्रक्रियाएँ पहले से ही चल रही थीं लेकिन मोदी ने इन्हें सार्वजनिक कर दिया है। यह बात संयुक्त राष्ट्र में भारत के वोटिंग पैटर्न से स्पष्ट है, ख़ास तौर पर भविष्य में फिलिस्तीनी राज्य की राजधानी के रूप में पूर्व जेरुसलम की मांग को छोड़ना। विशेषकर, यह फिलिस्तीनी राष्ट्रपति के हालिया भारत दौरे के दौरान और मोदी की इसराइल यात्रा से पहले हुआ, जो किसी भी भारतीय प्रधान मंत्री की इसराइल में पहली एकमात्र यात्रा होगी ।
तो, दुनिया के साथ भारत के इन संबंधों का क्या मतलब है ? यह अभी स्पष्ट नहीं है, लेकिन मोदी के शीर्ष राजनयिक विदेश सचिव एस जयशंकर के २०१५ भाषण की टिप्पणियां उपयोगी हो सकती हैं:उन्होंने कहा कि भारत सिर्फ एक संतुलन शक्ति के बजाय एक प्रमुख शक्ति बनना चाहता है । दूसरे शब्दों में, भारत एक “ ग्लोबल स्विंग स्टेट” से,जो अमेरिका जैसे पोल राज्य (pole state) का समर्थन करता है, खुद एक पोल राज्य बनना चाहता है। अवश्य एशले टेलिस के अनुसार, “प्रमुख शक्ति” मूल रूप से “महान शक्ति” का एक कमज़ोर संस्करण है और इसकी प्राप्ति मूलभूत रूप से बहुआयामी सफलता प्राप्त करने की क्षमता पर निर्भर करेगा: जो आर्थिक विकास के उच्च स्तर को कायम रख सके , प्रभावी राज्य क्षमता बना सके , और अपने लोकतांत्रिक व्यवस्था को मजबूत कर सके।
वैश्विक चढ़ाई की नींव
क्या भारत इस उद्देश्य पर खरा उतरेगा, यह एक खुला प्रश्न है। लेकिन निश्चित रूप से इसकी नींव रखी जा चुकी है। जेसै, भारत सक्रिय रूप से विभिन्न प्रकार की विकास साझेदारियां स्थापित करने के लिए जपान, संयुक्त अरब अमीरात और अमेरिका जैसे विभिन्न देशों तक पहुंच रहा है। हालांकि इन सभी राज्यों के साथ भारत के लम्बे समय से ऐतिहासिक संबंध हैं, लेकिन भारत के लिए इस संभावित परिवर्तनकारी क्षण में कौन कैसे काम आएगा, इस बारे में मोदी के बहुत विशिष्ट विचार हैं।
मोदी ने उपमहाद्वीप में प्रतिक्रियाशील दृष्टिकोण के बजाय सक्रिय दृष्टिकोण को अधिक ध्यान दिया है। आखिरकार, अगर भारत अपने पड़ोस में निर्विवाद नेता के रूप में नहीं उभर सकता है, तो वास्तविक रूप से वह विश्व स्तर पर भी ऐसा नहीं कर पाऐगा। भारत की आर्थिक समृद्धि मूलभूत तरीके से पड़ोसी देशों से जुड़ी हुई है, इसलिए इस सरकार का जोर दक्षिण एशियाई व्यापार और कनेक्टिविटी (connectivity) में सुधार पर है।
कुछ नई दिलचस्प परियोजनाएं भी हैं, जैसे एशिया-अफ्रीका विकास कोरिडोर, जिसमें भारत अफ्रीकी महाद्वीप में विकास के लिए जापान के साथ भागीदारी करेगा। भारत का अफ्रीका में अपने सहयोगियों के साथ काम करने का लंबा अनुभव है, लेकिन यह दिलचस्प होगा अगर यह सहयोग एक नए स्तर पर पहुँच जाये।
स्पष्ट है की कई चीज़ें गति में हैं । लेकिन अगर मोदी भारत में विकास ला सकते हैं, तो वह अपने देश को महान शक्ति के स्तर पर पहुंचा देंगे, और यह भारतीय विदेश नीति में एक नए चरण की शुरुआत का संकेत होगा । यह निस्संदेह उनकी विरासत को परिभाषित करेगा।
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Image 1: Flickr, United Nations Photo
Image 2: White House photo by Pete Souza via Wikimedia