Modi_Shah_BJP

इस महीने, पाँच राज्यों के विधान सभा चुनावों के नतीजे आये जिनमें भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश (यूपी) में भारी मतों से जीती तो वहीं पर कांग्रेस ने पंजाब में अपनी जीत दर्ज की। मणिपुर और गोवा में भी भाजपा ने जोड़-तोड़ के सरकार बना ली। इस चुनावी नतीजे ने जहाँ २०१९ में होने वाले लोकसभा चुनाव के लिए भाजपा का रास्ता साफ़ कर दिया है वहीं नोट बंदी की राजनीतिक सफलता पर मोहर भी लगा दि है।

उत्तर प्रदेश राजनीतिक दंगल का सबसे बड़ा अखाडा है, जहाँ हर बड़ी पार्टी के दिग्गज राजनीतिक पहलवानी में अपनी जोर आजमाइश करते हैं। पूरा गाँधी परिवार यहीं से चुनाव लड़ता रहा है तो बीजेपी के अटल बिहारी वाजपई से लेकर मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी तक ने इस दंगल में पहलवानी की है। जातीय समीकरण के हिसाब से भी ये राज्य काफी महत्पूर्ण माना जाता है और चुनावी विश्लेषण भी जातीय आधार पर किया जाता है जिसमें मुस्लिम समुदाय बड़ी संख्या में होने की वजह से महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता रहा है।

भाजपा और सहयोगी दलों ने ४०३ सीट में से ३२५ सीटों पर भारी मतों से जीत कर हर चुनावी विश्लेषण को गलत साबित कर दिया है। हालांकि बहुजन समाज पार्टी की प्रमुख मायावती ने ईवीएम (EVM) पर सवाल उठाते हुए चुनावी हेर-फेर का आरोप लगाया और यह दावा किया की मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्रों से बीजेपी कैसे जीत सकती है ? मुसलमान पारंपरिक रूप से बीजेपी को वोट नही देते रहे हैं लेकिन इसका यह भी मतलब नही कि मुसलमान कभी बीजेपी को वोट नही दे सकते। भाजपा ने दावा किया कि मुसलमानों ने भी उन्हें वोट दिया है– खास कर तीन तलाक के मुद्दे पर भाजपा की सक्रिय भूमिका ने मुस्लिम महिलाओं को काफी आकर्षित किया है। इस बात में सच्चाई भी हो सकती है क्योंकि इस मुद्दे को प्रगतिशील मुस्लिम महिला आन्दोलन भी उठाती रही है और तीन तलाक मुस्लिम महिला की जीवन से जुड़ा हुआ मुद्दा है जो सीधे तौर पर उनके जीवन को प्रभावित करता है।

इस चुनाव के नतीजों से यह बहस फिर छिड़ गई है की राजनीति में लंबे समय से चला आ रहा पारंपरिक सामाजिक समीकरण खत्म हो रहा है और अब उसे नए सिरे से देखने की ज़रुरत है।

यह सच है की भाजपा ने तीन तलाक का मुद्दा काफी ज़ोर-शोर से उठाया। इससे उसको कितना लाभ हुआ यह पता नही लेकिन इस मुद्दे पर मुस्लिम धार्मिक और अधार्मिक रहनुमा संस्थाओं की प्रतिक्रियाओं नें कम से कम हिन्दू मतदाताओं को एकत्रित कर के बीजेपी को काफी लाभ पहुँचाया। इस चुनाव ने यह भी संकेत दिया कि मुस्लिम धार्मिक नेताओं और गुरुओं का वर्चस्व अब मुस्लिम समाज पर नही रहा या खत्म होता दिख रहा है। शयद यही गलती बहुजन समाजवादी पार्टी ने की कि मुस्लिम वोट को हासिल करने के लिए वह सिर्फ मुस्लिम रहनुमाओं पर निर्भर रही और परिणाम के तौर पर जो कभी उत्तर परदेश की सबसे बड़ी पार्टी हुआ करती थी और कई बार सत्ता में भी रह चुकी है आज की तारीख में तीसरे दर्जे की पार्टी बन कर रह गई है।

इस चुनाव से यह भी साबित होता है कि मुस्लिम समाज को केवल एक सजातीय श्रेणी समझना और उसे उसके निकट पहचान तक सीमित रखना सही नही होगा। मुस्लिम समाज सिर्फ मुस्लिम या सबसे पहले मुस्लिम है ऐसी धारणा गलत है। धार्मिक पहचान के साथ-साथ एक मुसलमान की दूसरी पहचाने भी होती हैं जो उसकी धार्मिक पहचान से अधिक महत्पूर्ण भी हो सकती हैं, जैसे लिंगिक, वर्गीय, या आर्थिक पहचान। भाजपा शायद इसी का फायदा उठाने की कोशिश कर रही है।

खुद मुस्लिम समुदाय के भीतर जातीय, लैंगिक और वर्गीय समस्याओं की चर्चा बहुत कम होती है और उसे नज़र अंदाज़ कर दिया जाता है। इन सवालों को लेकर मुस्लिम समुदाय के भीतर से उठ रही आवाज़ों को खतरे दिखा कर मुस्लिम रहनुमाओं द्वारा खामोश कर दिया जाता है। मुस्लिम समुदाय के समस्याओं को समझने के लिए पारंपरिक रूप से केवल मुस्लिम रहनुमाओं को महत्पूर्ण समझा जाता रहा है जो एक भूल है। अब मुस्लिम समुदाय को तात्कालिक पहचान में सीमित करने की धारणा को छोड़ना होगा और उसे सिर्फ एक एकत्रित वोट बैंक मानने की गलती सुधारनी होगी।

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Image: Bharatiya Janata Party website

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