दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (सार्क) देशों के सभी नेताओं को अपने शपथ ग्रहण समारोह में आमंत्रित करके भारतीय प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी ने २०१४ में अपने कार्यकाल की शुरुआत भारत के पड़ोस पर ध्यान केंद्रित करने के साथ की। लेकिन अब साढ़े तीन साल बाद ऐसा लगता है कि सरकार की “पड़ोस पहले” वाली नीति को जारी रखने की राजनीतिक इच्छा नहीं रही। उसी समय पर, भारत के दक्षिण एशियाई पड़ोसियों के साथ चीन की भागीदारी काफी बढ़ गई है। उपमहाद्वीप के अधिकांश देशों में जल्द ही होने वाले चुनावों को देखते हुए, दक्षिण एशिया पर नए सिरे से ध्यान देना के लिए भारत सरकार का यह सही मौका है।
नेपाल के राष्ट्रीय, संसदीय, और स्थानीय चुनाव हाल ही में संपन्न हुए हैं लेकिन शेष दक्षिण एशिया अभी चुनाव के मौसम में प्रवेश कर रहा है। २०१८ में, पाकिस्तान, भूटान और मालदीव में चुनाव होंगे जबकि बांग्लादेश, अफगानिस्तान और भारत में चुनाव २०१९ में हैं, और उसके बाद २०२० की शुरुआत में श्रीलंका में। लोकतांत्रिक शासन, नागरिक-सैन्य संबंध, संघवाद की प्रकृति, आर्थिक विकास, और अल्पसंख्यक प्रतिनिधित्व इन देशों में महत्वपूर्ण चुनावी मुद्दे हैं और दक्षिण एशिया की जटिल क्षेत्रीय राजनीति को प्रभावित करते हैं। विवादास्पद घरेलू मुद्दे और बढ़ती चीनी उपस्थिति भी इस क्षेत्र की भू-राजनीतिक वास्तविकताओं को प्रभावित करेंगी।
शासन पर ध्यान दिए बिना, चीन नेपाल, बांग्लादेश और श्रीलंका को आर्थिक और विकास सहायता प्रदान करने में भारत के साथ मुकाबला कर रहा है। इन छोटे दक्षिण एशियाई राज्यों की विकास और सुरक्षा में चीन की भूमिका भारत के लिए विदेशी नीति और सुरक्षा पर मुश्किल चुनौतियाँ पैदा कर रही है। इस क्षेत्र की सुरक्षा, स्थिरता, लोकतंत्र, और समृद्धि में भारत का दाँव है और चीन की बढ़ती उपस्थिति से इन राज्यों पर भारत की पकड़ कमज़ोर हो रही है। इसलिए, इन आने वाले चुनावों के साथ, क्षेत्र में चीन के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए आने वाली सरकारों के साथ प्रभावी साझेदारी के संबंध में भारत को महत्वपूर्ण नीति चुनौतियों का सामना करना होगा।
नेपाल एक अच्छा उदाहरण है: २०१५ के नए संविधान के अनुसार, हाल ही में एक नई सरकार चुनी गई है। नेपाली विदेश नीति अब व्यापार के लिए भारत पर अपनी भारी निर्भरता में विविधता लाने को प्राथमिकता दी रही है। इस बीच, पिछले तीन वर्षों में, नेपाल के साथ चीन के संबंध मजबूत हुए हैं, और देश में वामपंथी गठबंधन की चुनावी जीत के साथ, नए शासन पर चीन का प्रभाव और भी बढ़ सकता है। बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) में भागीदारी के जरिए नेपाल ने चीन के साथ घनिष्ठ संबंध स्थापित किए हैं। भारत इस उभरती हुई स्थिति का सामना कैसे करेगा और नेपाल में अपनी पकड़ कैसे बनाए रखेगा, यह देखना बाकी है।
पाकिस्तान और मालदीव में लोकतांत्रिक ढंग से निर्वाचित सरकारें भारत के लिए एक दूसरी तरह की चुनौतियाँ पेश कर रही हैं। भारत पिछले तीन वर्षों में इन दोनों राज्यों के साथ अपने संबंधों में अर्थपूर्ण प्रगति करने में विफल रहा है और लगता है भारत यह करना चाह भी नहीं रहा। न केवल भारत और पाकिस्तान के बीच बातचीत की कमी रही है, बल्कि इस्लामाबाद चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे के माध्यम से, चीन की बीआरआई परियोजना का एक अभिन्न अंग भी है, जो भारत और पाकिस्तान के बीच विवादित क्षेत्र से हो कर जाता है और इसलिए नई दिल्ली ने उसका विरोध किया है। इसी तरह, पिछले साल मालदीव में हुए राजनीतिक संकट में भी, स्थिति को नियंत्रित करने की क्षमता के बावजूद भी, भारत ने स्थिति संभालने के लिए ज्यादा कुछ नहीं किया। हाल ही में, हिंद महासागर में बढ़ती चीनी गतिविधियों पर भारतीय चिंताओं के बीच, मालदीव ने चीन के साथ एक मुक्त व्यापार समझौता (एफटीए) पर हस्ताक्षर किया और इससे चीन को द्वीप राज्य पर अधिक से अधिक प्रभाव और शासन को कुछ राजनीतिक सहायता मिलने की उम्मीद है।
भारत-चीन मुकाबला अन्य दक्षिण एशियाई राज्यों में भी दिखता है। पिछले तीन सालों में, भारत ने बांग्लादेश और म्यांमार के साथ द्विपक्षीय संबंधों में सुधार लाया है लेकिन हालिया रोहिंग्या संकट ने दक्षिण एशिया में भारत की कूटनीतिक सीमाओं को स्पष्ट कर दिया है। संकट का समाधान लिए जब चीन एक फार्मूले के साथ आगे आया, तब भारत रोहिंग्या से संभावित घरेलू खतरे की बहस में अधिक व्यस्त था और क्षेत्रीय शक्ति के रूप में अपनी भूमिका निभाने में विफल रहा। इसी तरह, भूटान के साथ भारत के संबंधों की जाँच हाल में डोकलाम गतिरोध के दौरान हुई, जिसमें चीन शामिल था। भारत और चीन के साथ भूटान के संबंध २०१३ के राष्ट्रीय चुनाव में मुद्दा बन गए थे। तब की भूटान सरकार ने जैसे ही चीन के साथ संबंध बनाने की कोशिश की, नई दिल्ली ने भूटान को स्पष्ट संदेश देते हुए थिम्पू को मिलने वाली विकास संबंधी सहायता ख़त्म कर दी। एक तरफ, इन राज्यों में भारत की अधिक से अधिक आर्थिक सहायता, सैन्य हित, और कूटनीतिक ध्यान देने की उम्मीदें घरेलू राजनीति को प्रभावित करने में एक भूमिका निभाती हैं। दूसरी तरफ, चीन अब दक्षिण एशियाई राज्यों की सहायता करने और इन देशों के शासक वर्ग के साथ साझेदारी के मामले में बेहतर स्तिथि में है। अपने राजनीतिक-राजनयिक हितों के कारण, भारत ऐसा नहीं कर सकता।
इस संदर्भ में, यह ध्यान देना ज़रूरी है कि चीन इस क्षेत्र में तेजी से प्रवेश कर तो रहा है लेकिन क्षेत्रीय राज्यों की भूगोल और घरेलू राजनीति के कारण, चीन के प्रभाव की सीमाएं भी हैं। इसलिए, यही समय है कि भारत सरकार क्षेत्रीय उम्मीदों को पूरा करे और उपमहाद्वीप की वृद्धि और समृद्धि के लिए लड़ने वाले एक नेता की भूमिका निभाए।
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Image 1: Indian Embassy, Bangkok
Image 2: Umairadeeb via Flickr