India Israel Modi Rivlin

अपनी तेल अवीव यात्रा के साथ, भारत के प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी एक लंबे समय से चले आ रहे कूटनीतिक गतिरोध को तोड़ने की तैयारी कर रहे हैं। इस यात्रा का काफी इंतज़ार था। 1992 में जब राजनयिक संबंधों की स्थापना हुई, तब से अब तक किसी भारतीय प्रधान मंत्री ने इजरायल का दौरा नहीं किया है। यह विसंगति अब सही की जाने वाली है।

इस साल, भारत और इजरायल 25 साल के राजनयिक संबंधों का जश्न मनाएंगे, और इसलिए भारतीय प्रधान मंत्री की यात्रा कई मानों में महत्वपूर्ण है। जबकि मोदी भारत की तेल अवीव को नजरअंदाज करने की एक समकालीन ऐतिहासिक गलती को सही करेंगे, वहीं दिल्ली द्वारा बनाई गई कूटनीतिक दूरी के बावजूद भारत-इजरायल संबंध उच्चतम स्तर पर हैं। भारत के इस रवैये के पीछे तीन कारण थे: पहला, भारत और मध्य-पूर्व देशों के संबंध अप्रचलित नेहरूवादी गुट निर्पेछ से प्रभावित रहे।  दूसरा, फिलिस्तीन के मुद्दे पर नई दिल्ली के लंबे समय से चली आ रहे  राजनीतिक और नैतिक रुख ने इजरायल के साथ संबंधों में बाधा डाले रखी। और आखिरी, सऊदी अरब जैसे अरब सहयोगियों के जरिए पाकिस्तान पर दबाव डालने वाली भारतीय रणनीति ने इजरायल के साथ संबंधों को मजबूत बनाने के ख्याल को दूर रखा।

इसके विपरीत, इजरायल भारत से दूर नहीं गया। बल्कि वास्तव में पूर्व प्रधान मंत्री डेविड बेन-गुरियन ने 1953 में ही डूबते पश्चिमी वर्चस्व के बीच “इजरायल इन द नेशन्स” नामक एक निबंध में एशिया के उदय पर चर्चा की थी। शायद इन सालों में तेल अवीव ने भारत की घरेलू राजनीतिक सीमाएं और क्षेत्र में संतुलन बनाए रखने कि जरुरत को समझा है।  2003 में  प्रधान मंत्री एरियल शेरोन ने नई दिल्ली की पहली प्रधान मंत्रीीय यात्रा की थी। तब से दोनों पक्षों की तरफ से कई उच्चस्तरीय यात्रायें हुईं हैं। भारतीय राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने 2015 में इजरायल का दौरा किया और बदले में पिछले साल इजराइली राष्ट्रपति रेवेन रिवलन ने भारत का एक सप्ताहिक  दौरा किया।

ऐतिहासिक रूप से, इजरायल भारत के साथ गहन संबंधों के अपने इरादे के बारे में अधिक स्पष्ट रहा है। भारत के 1991 आर्थिक उदारीकरण के बाद दोनों देशों  के बीच राजनयिक संबंधों का स्थापित होना अच्छा संयोग था। रक्षा जल्दी सहयोग का एक प्रमुख मुद्दा बन गया, जिसका बीज तेल अवीव ने 1996 में ही बो दिया था। उदाहरण के लिए, 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान, जब नई दिल्ली ने खुद को वैश्विक बहिष्कार कि कगार पर खड़ा पाया, तब शोधकर्ता गैरी बास के अनुसार, इजरायल के तत्कालीन प्रधान मंत्री गोल्डा मेयर भारत के जूझते शस्त्रागार को गुप्त रूप से हथियार देने के लिए आगे आये। बास ने इजरायल के इस अनपेक्षित समर्थन को भारत के लिए एक आश्चर्यजनक छोटी सफलता बतलाया था।

आज, रक्षा सहयोग भारत-इजरायल संबंधों का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है। भारत हथियारों के लिए इजरायल का सबसे बड़ा बाजार है, और रूस और अमेरिका के बाद, इजरायल अब भारत का तीसरा  सबसे बड़ा हथियार प्रदाता है। इसके अलावा, लगभग किसी भी अन्य देश से कम प्रतिबंधक नियमों के साथ, तेल अवीव ने रक्षा क्षेत्र में नई दिल्ली के साथ संयुक्त विकास साझेदारी में अधिक रुचि  दिखाई है।  मोदी के दौरे से भारत-इजरायल रक्षा साझेदारी को और भी बढ़ावा मिलेगा, एक ऐसा क्षेत्र जिसमे दोनों देश, जो सीमा पार आतंकवाद से ग्रस्त हैं, वास्तव में एक परिभाषात्मक रणनीतिक संबंध विकसित कर सकते हैं।

हालांकि, रक्षा से परे, भारत-इजरायल संबंधों में किसी भी तरह की वृद्धि के क्षेत्रीय और वैश्विक निहितार्थ होंगे। भारत की तरह चीन बहुत बड़े पैमाने पर मध्य-पूर्व देशों में अपनी एक महत्वपूर्ण आर्थिक उपस्थिति बना रहा है। भारत से तीन गुना बड़ी अर्थव्यवस्था और साथ में बढ़ते राजनीतिक प्रभाव के कारण,  जिसका इस्तेमाल करने से बीजिंग कतराएगा नहीं, चीन भारत को मजबूर कर सकता है कि वह इस क्षेत्र में अपनी कूटनीतिक अस्पष्टता की चाल-बाज़ी न करे और मुद्दों, दलों, और राज्यों पर अधिक स्पष्ट और साफ़ पक्ष ले। भारतीय दृष्टिकोण में, इस तरह के बदलाव की राजनीतिक क़ीमत को काफी बढ़ा चढ़ा कर दिखाया जाता है और यही कारण है कि इस तरह के दौरों में इतनी देरी हुई है।

दिलचस्प बात यह है कि भारत और चीन दोनों ने 1992 में इजरायल के साथ कूटनीतिक संबंध स्थापित किये। इस देरी का कारण शायद दोनों देशों के लिए समान था: दोनों तेल अवीव के साथ संबंध स्थापित करके अरब सहयोगियों को नाराज़ नहीं करना चाहते थे। बहरहाल, सोवियत संघ के विघटन के बाद 1991 में भारत और चीन दोनों ने अमेरिका के मेड्रिड शांति सम्मेलन का लाभ उठाया,  जिसमे आधिकारिक रुप से संबंध स्थापित करने के लिए अरब देश और इजरायल वार्ता के लिए आमने-सामने बैठे। नई दिल्ली और बीजिंग के बीच समकालीन राजनैतिक और आर्थिक प्रतिद्वंद्विता कि वजह से, जो पहले अफ्रीका जैसे अन्य भू-राजनीतिक थियेटरों में देखी गई है, मध्य-पूर्व देशों के प्रमुख खिलाड़ियों के एशियाई थिएटर के प्रति दृष्टिकोण पर प्रभाव पड़ेगा। रियाद टोक्यो के साथ मिलकर 100 अरब डॉलर के टेक्नोलॉजी फंड जैसी योजनाएं शुरू कर रहा है जिसमें भारत को ज़रूर दिलचस्पी होगी। इसको देखते हुए इजरायल को भी नई दिल्ली के साथ दीर्घकालिक रणनीतिक सहयोग के लिए रक्षा समझौते के दायरे से परे देखना होगा। कूटनीतिक और आर्थिक रूप से चीन का मुकाबला करने के भारत के प्रयासों में इजरायल के उद्योग के लिए एक अवसर है कि वह तकनीकी हस्तांतरण और संयुक्त विकास जैसे मुद्दों पर न केवल क्षेत्रीय बल्कि वैश्विक प्रतिस्पर्धियों पर बढ़त विकसित करे।

मोदी के इजरायल दौरे का उद्देश्य भारत को मध्य-पूर्व देशों के करीब लाना और भारत को एक ऐसी राजनीतिक रूप से प्रासंगिक शक्ति दर्शाना जो दुनिया के सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से एक है।  इजराइल अपने पड़ोसियों के साथ मुक़ाबला  में है, जिन्होंने निवेश के लिए पूर्व की तरफ  देखना शुरू कर दिया है क्योंकि वे अपनी पारंपरिक पेट्रोडोर अर्थव्यवस्थाओं से पीछा छोड़ाने की कोशिश कर रहे हैं। अर्थशास्त्र को भारत की मध्य-पूर्वी नीतियों में प्रचलित होना होगा और राजनीतिक पुन: संतुलन स्वतः ही मध्य-पूर्व देशों से स्थापित हो जाएगा।

Editor’s note: To read this peace in English, click here.

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Image 1: Flickr, MEAphotogallery

Image 2: Israel’s Defense Minister Moshe Ya’alon with Indian Prime Minister Narendra Modi, Embassy of Israel, India

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