अप्रैल में, भारत और अमरीका के रक्षा मंत्रियों, मनोहर पर्रीकर और एश्टन कार्टर, ने रक्षा संबंधों को मज़बूत करने के लिए एक सैन्य समर्थन समझौते (लॉजिस्टिक्स सपोर्ट एग्रीमेंट) पर हस्ताक्षर करने का फ़ैसला किया। देश में बहुत लोग सोच रहे थे कि अब भारत और अमरीका और क़रीब आजाऐंगे। लोग यह भी चिंता कर रहे थे कि चीन इस रिश्ते को बर्दाश्त नहीं करेगा। इस संदर्भ में, कई लोगों का मानना था कि भारत और चीन की ऊँचे स्तर की बैठक, जो कार्टर की अमरीकी यात्रा के तुरंत बाद होनी थी, केवल चीन को ख़ुश करने के लिए रखी गयी थी। मगर यह सोच ग़लत थी।
कार्टर के दौरे के तुरंत बाद, पर्रिकर पहली बार चीन गए और विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने मॉस्को में अपने चीनी समकक्ष से मुलाक़ात की। भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत दोवल भारत-चीन के बीच उन्नीसवीं सीमा वार्ता के लिए भी बेजिंग मे थे। इनमें से किसी भी वार्ताओं मे चीन सरकार ने इस समझौते के बारे में कुछ नहीं कहा। केवल चीनी राज्य अख़बार “ग्लोबल टाइम्स” ने पर्रिकर की यात्रा के दौरान एक लेख प्रकाशित किया, यह विश्वास जताते हुऐ कि भारत अमरीका के अलावा दूसरे देशों से भी घनिष्ठ संबंध बनाए रखेगा।
यह “लोजिस्टिक्स एक्सचैंज मेमोरैंडम ऑफ़ अग्रीमेंट” (LEMOA) भारत- अमरीका सैन्य गतिविधियों को संस्थागत करेगा, ख़ास तौर पर नौसेनाओं के बीच। यह समझौता मौजूदा गतिविधियों नहीं बढ़ाएगा परंतु उनहें सुगम और सुचारु बनाएगा। यह भुगतान की प्रक्रिया को सरल कर देगा। यह अमरीकी नौसेना को मदद करेगा जो भविष्य में 60 प्रतिशत समुद्री जहाज़ इंडो-पसिफिक में तैनात करेगा।
भारत को टैकनोलजी का लाभ दूसरे “फैंडेशनल समझौते”, जैसे “कम्युनिकेशंस एंड इंफॉर्मेशन सिक्योरिटी मेमोरेंडम ऑफ़ अग्रीमेंट” (CISMOA) और “बेसिक एक्सचैंज एंड कोऑपरेशन अग्रीमेंट फॉर जीओस्पैशल इंटेलिजेंस” (BECA), से होगा, वह भी जब उन पर हस्ताक्षर हो जाएं। विशेषज्ञों का कहना है कि हिंद महासागर में चीन पर विषम (ऐसिमेट्रिक) लाभ रखने के लिए भारत नौसेने को टैकनोलजी की ज़रुरत है।
तो इस बात पर चीन क्यों शोर नहीं मचा रहा है? दो कारण हैं: पहला, समझौता अभी भी नया है। CISMOA पर अब भी बातचीत हो रही है और BECA पर तो वार्ता शुरू भी नहीं हुई। और तो और, LEMOA समझौते पर भी अब तक हस्ताक्षर नहीं हुए हैं। दूसरा, चीन का जवाब शायद इतना कठोर नहीं होगा जितना लोग सोच रहे हैं। ध्यान रहे कि श्री लंका, एक छोटा देश जहां चीन ने बहु मिलियन डॉलर निवेश किया है, अमरीका के साथ LSA पर हस्ताक्षर कर चुका है और चीन ने कुछ भी नहीं कहा। इस दौरान चीन के आक्रामक रवैये पर चुप्पी से नई दिल्ली को कोई लाभ नही हुआ।
दिल्ली में सरकार यह समझती है, और इस लिए वह चीन का एक ज़्यादा आश्वस्त अवतार में मुक़ाबला करना चाहती है। इस लिए बेजिंग और मॉस्को की कार्यसूची पर जैश-ए-मुहम्मद के लीडर मसूद अज़हर के बारे में लम्बी बातचीत हुई। जब संयुक्त राष्ट्र में भारत ने अज़हर को आतंकवादी का नाम देने की कोशिश की तो अपने क़रीबी दोस्त पाकिस्तान की रक्षा करने के लिए चीन ने कार्रवाई रोकी। यह माना जाता है कि अज़हर पाकिस्तान सरकार से जुड़ा हुआ है। इसलिए भारत का विरोध करना सही है। तीनों भारतीय अधिकारियों (पार्रीकर, दोवल और स्वराज) ने यह बात बार-बार उजागर की। उस दौरान, भारत ने एक प्रमुख उइग़ुर एक्टिविस्ट को धर्मशाला में एक कांफ्रेंस मे आने के लिए वीसा दिया (और बाद में वीसा रद्द किया)। चीन उस को आतंकवादी समझता है।
शायद लोग चिंतित हैं कि इन कदमों से भारत-चीन द्विपक्षीय संबंध ख़राब होंगे। किंतु दोनों देशों ने एक डायरेक्टर जनरल मिलिट्री ऑपरेशन्स हॉटलाइन रखने और एक और सीमा पारगमन बनाने के फ़ैसले किये हैं। यह विश्वास बहाली के छोटे उपाय हैं, किंतु सीमा का मसला जल्दी हल नहीं होगा।
थदि नई दिल्ली खेलना चाहती है तो उसे सारे मुद्दों पर ध्यान देना होगा। क्या भारत को मसूद अज़हर की बात पर बहुमूल्य राजनयिक दबाव डालना की आवश्यकता थी? अंत में पाकिस्तानी आतंकवाद के ख़िलाफ़ भारत की लड़ाई में संयुक्त राष्ट्र के प्रतिबंध ज़्यादातर प्रतीकात्मक होंगे। 26/11 योजनाकर्ता हाफिज़ सईद का मामला इसका प्रमाण है।
इसके बजाय, भारत को चीन के बड़े पैमाने के सैन्य सुधारों पर ध्यान देना चाहिए। राष्ट्रपति और प्रमुख कमांडर शी जिनपिंग अपने सिपाहियों को न सिर्फ अगली जंग के लिए बल्कि अपने देश की आक्रामक आर्थिक चालों को बढ़ाने के लिए भी तैयार कर रहे हैं, “वन रोड, वन बेल्ट” योजना के ज़रिये। भारत को एक विश्वसनीय प्रतिक्रिया चाहिए, ख़ास तौर पर हिंद महासागर क्षेत्र में जहां उसे सब से बड़ी ताक़त रहना होगा। अमरीकी समर्थन इसमें बहुत मदद कर सकता है। भारत को बस इतना आश्वस्त होना है कि इस अमरीकी समर्थन को अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करे।
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