कश्मीर में राजनीतिक और सुरक्षा स्थिति बिगड़ रही है , इस बात को श्रीनगर और दिल्ली दोनों के विश्लेषकों और राजनीतिक नेताओं ने व्यापक रूप से स्वीकार किया है । लेकिन जहाँ एक तरफ कश्मीर की सड़कों पर लोग नाराज़ और परेशान हैं , वहीं दिल्ली में बैठे सत्ताधारी राजनीतिक और सुरक्षाकर्मी स्थिति की गंभीरता को स्वीकार नहीं कर रहे हैं और लोगों के गुस्से को संबोधित करने में तेज़ी नहीं दिखा रहे हैं । इस वजह से, पिछले साल की तरह, कश्मीर में फिर से अनिश्चितता और अराजकता की स्थिति पैदा हो गई है।
इस गंभीर हालात में, यह जरूरी है कि नई दिल्ली कश्मीर से बातचीत का कोई रास्ता निकाले। इसका मतलब यह नहीं है की कश्मीरी अलगाववादी नेताओं को बातचीत के लिए आमंत्रित किया जाए, जो वर्तमान के माहौल में संभव नहीं है। लेकिन इसका मतलब यह है की जनता के गुस्से को स्वीकार किया जाए और नाराज़ कश्मीरी युवाओं को आश्वस्त किया जाए की देश का राजनीतिक नेतृत्व उनसे बात करने की आवश्यकता को समझता है।
असंतोष से विद्रोह को हवा
पिछली जुलाई में हिजबुल मुजाहिदीन के कमांडर बुरहान वानी की हत्या के बाद, कश्मीर में अशांति और विरोध प्रदर्शन की यह लगातार दूसरी लहर है। हर दूसरे दिन, सरकार और चरमपंथियों के बीच मुठभेड़ होती हैं, जिसमें दोनों पक्षों की मौत होती है, और इसके बाद मारे गए चरमपंथियों के सामूहिक अंतिम संस्कार होते हैं और उनकी मौत पर विरोध प्रदर्शन के जुलूस निकलते हैं । ग्रेटर कश्मीर द्वारा जारी सरकारी आंकड़ों के अनुसार, इस वर्ष जनवरी से जून तक, पूरे राज्य में चरमपंथ से संबंधित घटनाओं में 136 लोग मारे गए । यह पिछले वर्ष इसी अवधि के दौरान हुए हताहतों की संख्या में चार गुना से ज्यादा है । इन हताहतों में 81 चरमपंथी, 27 नागरिक और 28 सुरक्षा कर्मी शामिल हैं। इसके अलावा, घरेलू चरमपंथ में खतरनाक वृद्धि हुई है जो सेना के लिए एक गंभीर सुरक्षा चुनौती है । भारतीय सुरक्षा बलों द्वारा कई वर्षों की सफल जवाबी कार्यवाही के बाद भी कश्मीर में चरमपंथ जीवित है और कश्मीरी युवाओं द्वारा संचालित ताज़ा विद्रोह सुरक्षा प्रतिष्ठान के लिए चिंताजनक है। एक अख़बार की रिपोर्ट के मुताबिक, बुरहान वानी की मौत के बाद से इस साल मार्च तक, करीब 250 कश्मीरी युवा चरमपंथ में शामिल हुए हैं।
हालांकि नागरिकों और सुरक्षा बलों के बीच झड़प अनिवार्य रूप से रोज़ कि बात बन गई है, पर कुछ विशेष घटनाओं ने अस्थिर स्थिति को और ख़राब कर दिया है । एक घटना अप्रैल की है जब एक भारतीय सेना अधिकारी ने एक नागरिक , फौद अहमद दार , को सेना की जीप के बोनट से बांध कर पत्थर बाज़ों के खिलाफ मानव कवच के रूप में इस्तेमाल किया था। इस घटना से व्यापक आक्रोश पैदा हुआ और पुलिस ने शिकायत भी दर्ज की। न्यूयॉर्क टाइम्स के एक संपादकीय ने इसे “क्रूरता और कायरता” करार दिया। इस घटना की भारतीय सेना के दिग्गजों ने भी आलोचना की, जिसमें भूतपूर्व लेफ्टिनेंट जनरल एच एस पनाग भी शामिल थे। जून के आखिरी हफ्ते में, भारतीय सैनिकों के दो वीडियो सोशल मीडिया पर सामने आए जिसमें युवाओं को सैनिकों द्वारा यातनाएँ दी जा रही थीं। इस घटना ने फिर से आक्रोश पैदा किया। सरकारी बलों द्वारा नागरिकों के विरुद्ध हिंसा की इन घटनाओं से तनाव बढ़ गया है और इन घटनाओं ने लोगों को विरोध करने और सरकारी बलों के साथ संघर्ष करने का अधिक कारण प्रदान किया है।
राजनीतिक विश्वासघात
कश्मीर में अशांत स्थिति के विभिन्न कारण हैं, लेकिन एक विशेष रूप से स्पष्ट है: पिछले कई वर्षों में, राज्य और केंद्रीय सरकारों ने शांति स्थापित करने के कई अवसर बर्बाद किया हैं। उदाहरण के लिए, मई 2006 में, प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह द्वारा कश्मीर पर सम्मेलनों की एक श्रृंखला के बाद, कांग्रेस पार्टी की यूपीए सरकार ने जम्मू-कश्मीर के मुद्दों को हल करने के लिए पांच कार्यदल समूह बनाए। उनकी सिफ़ारिशें, जिसमें समाज के सभी क्षेत्रों में विश्वास-निर्माण के उपाए (CBMs), केंद्र-राज्य संबंधों को मजबूत करना, सुशासन सुनिश्चित करना, नियंत्रण रेखा के पार संबंधों को मजबूत बनाना, बेरोज़गारी को हल करना, हिंसा के शिकार लोगों का पुनर्वास और आर्थिक सशक्तिकरण शामिल थे, लागू नहीं की गई। दूसरी घटना 2010 की गर्मी की है जब भयानक आंदोलन के बाद यूपीए सरकार ने फिर से तीन सदस्यीय वार्ताकारों का गठन बनाया, जिसने जम्मू-कश्मीर के विभिन्न हितधारकों के साथ साल भर बातचीत करने के बाद सरकार को रिपोर्ट सौंपी। वह भी लागू नहीं की गई। इसकी वजह से जनता में और निराशा पैदा हो गई।
इस पृष्ठभूमि में, यह संभव है कि नई दिल्ली द्वारा इस तरह की पहलकदमी को केवल निरुत्साह प्रतिक्रिया ही मिलेगी। फिर भी मौजूदा गतिरोध को समाप्त करने और परेशान आबादी के बीच सुरक्षा की भावना लाने का एकमात्र तरीका कश्मीर के लोगों से बात करना है।
वार्ता का कोई ल्पिक नहीं
हिंदू राष्ट्रवादी भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के नेतृत्व वाली गठबंधन एनडीए ने एक कठिन रुख अपनाया है और कश्मीरी अलगाववादी नेताओं के साथ बातचीत करने से इनकार कर दिया है। कश्मीर में अलगावादियों के साथ बातचीत की जरूरत पर मुख्यमंत्री मेहबूबा मुफ्ती ने कई बार जोर दिया है, लेकिन केंद्रीय सरकार ने हर बार किसी न किसी वजह से इसे अस्वीकार किया है।
इस वजह से कश्मीर की संपूर्ण स्थिति खराब हो गई है। घाटी में अलगाववादी नेताओं द्वारा लगातार शहर बंद करने के आदेश, प्रदर्शनकारियों और पुलिस के बीच हिंसक संघर्ष और भारतीय सुरक्षा बलों और चरमपंथियों के बीच गोलीबारी चल रही है। हालांकि भारतीय सुरक्षा बल कश्मीर की स्थिति सुधारने के बारे में आश्वस्त हैं, लेकिन इस निरंतर अशांति की अवस्था में लोगों का क्रोध और अवज्ञा निरन्तर और निर्बाध है। भारत की सरकार का यह दावा है कि अशांति का वर्तमान चरण दूर हो जाएगा। चरमपंथियों को निष्प्रभावित कर के उनकी संख्या को कम किया जा सकता है पर प्रभावशाली जनता के क्रोध को हल करने का कोई और विकल्प नहीं है, अलावा इसके की कश्मीरियों के साथ संवाद के माध्यम तलाश किये जाएं, विशेषकर युवाओं के साथ, जो इस आंदोलन में सबसे आगे हैं।
इस परिदृश्य में, इस मुद्दे के राजनीतिक रूप पर बातचीत को खारिज करने से जनता की नाराज़गी में केवल बढ़ौतरी होगी। कश्मीर में संवाद की आवश्यकता पर देश के कई राजनीतिक नेताओं और पूर्व सुरक्षा और इंटेलिजेंस विशेषज्ञों ने ज़ोर दिया है। कश्मीर पर अपनी विशेषज्ञता के लिए जाने वाले रॉ के पूर्व प्रमुख ए. एस. दुलत ने एक इंटरव्यू में कहा कि “कश्मीर के बारे में कश्मीरियों से बात” करने के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं है। यहां तक की भाजपा नेता और पूर्व विदेश मंत्री यशवंत सिन्हा ने भी एक लेख में तर्क दिया कि कश्मीर “एक राजनीतिक मुद्दा है और इसे राजनीतिक रूप से सुलझाया जाना चाहिए, बलपूर्वक नहीं।” भारतीय बुद्धिजीवियों में भी इसी तरह की बात स्पष्ट की है कि मुश्किल समस्याओं को नजर अंदाज करने के बजाय नई दिल्ली को कश्मीर के बारे में बात करनी चाहिए ।
चरमपंथ संबंधी घटनाओं में वृद्धि, चरमपंथ में शामिल कश्मीरी युवाओं की बढ़ती संख्या, और विद्रोह के लिए लोकप्रिय समर्थन इस बात का संकेत हैं कि भारत के राजनीतिक नेतृत्व को सतर्क रहना चाहिए और भाजपा के नेतृत्व वाले सत्तारूढ़ गठबंधन को कश्मीर में अशांति को दूर करने के लिए राजनीतिक विकल्प की तलाश करनी चाहिए। सैन्य उपायों पर निर्भरता कोई विकल्प नहीं है।
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