
हाल के महीनों में, भारत और चीन के बीच उच्च स्तरीय राजनयिक आदान-प्रदान में बढ़ोतरी देखी गई है। अक्टूबर 2024 के सीमा समझौते के उपरांत, विशेष रूप से, भारत-चीन संबंधों में गर्माहट के संकेत मिले हैं| हाल ही में, भारतीय विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने द्विपक्षीय मामलों पर चर्चा करने के लिए बीजिंग का दौरा किया, जो पाँच वर्षों में चीन की उनकी पहली यात्रा थी। इसके पश्चात्, जयशंकर शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) के विदेश मंत्री परिषद की क्षेत्रीय बहुपक्षीय मुद्दों पर चर्चा में भाग लेने के लिए तियानजिन की यात्रा पर गए। जयशंकर ने चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग से भी परस्पर भेंट की | जयशंकर की यह यात्रा जून में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल की शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) बैठकों के बाद हुई है। अगस्त के अंत में, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भी आगामी एससीओ शिखर सम्मेलन के लिए चीन का दौरा करने की उम्मीद है, जो 2019 के पश्चात् और 2020 में घातक गलवान घाटी संघर्ष के उपरांत उनकी पहली चीन यात्रा होगी। भारत-चीन संबंधों में इस नरमी के बावजूद, बीजिंग की कुछ हालिया कार्यवाही भारत को बाधित करने हेतु चीन की एक सोची-समझी रणनीति को उजागर करती है।
मई 2025 के संघर्ष के दौरान बीजिंग की आर्थिक दबाव की रणनीति और पाकिस्तान को समर्थन, यह दर्शाता है कि चीन भारत पर रणनीतिक प्रभुत्व बनाए रखने के लिए आर्थिक लाभ और छद्म संबंधों दोनों को कैसे हथियार बना है। नई दिल्ली के लिए ये समानांतर अभियान चीन के साथ सहयोग को अधिक कठिन बना सकते हैं। हाल के महीनों में, भारतीय नीति निर्माताओं ने आर्थिक अनिवार्यताओं के जवाब एवं भू-राजनीतिक अनिश्चितता के दौर में, द्विपक्षीय संबंधों को आगे बढ़ाने के लिए चीन के साथ सामान्यीकरण की कोशिश की है। हालाँकि, कूटनीतिक जुड़ाव के माध्यम से सहयोगात्मक सह-अस्तित्व की अपेक्षा करने के बजाय, नई दिल्ली को बीजिंग से, मौलिक प्रतिस्पर्धी दृष्टिकोण को पहचानना चाहिए। इसके लिए भारत को आर्थिक साझेदारी में विविधता लानी चाहिए तथा वैकल्पिक आपूर्ति श्रृंखलाओं को प्रबल बनाने के साथ-साथ चीन से मिलने वाली स्थायी चुनौती के लिए तैयार होने के प्रयत्नों में तीव्रता लाने का प्रयास भी करना चाहिए|
चीनी आर्थिक दबाव
पिछले कुछ महीनों में भारत के विरुद्ध चीन की आर्थिक चालें समग्र द्विपक्षीय संबंधों में किसी भी प्रकार की नरमी की नींव की दुर्बलता को प्रकट करती है। मई से अब तक, भारत में आईफोन निर्माता कंपनी फॉक्सकॉन के लिए अभियन्ता एवं तकनीकी कर्मचारी के रूप में कार्यरत 300 से अधिक चीनी नागरिकों को वापस बुलाया जा चुका है। चीनी श्रमिकों को हटाने से स्थानीय कार्यबल का प्रशिक्षण तथा चीन से विनिर्माण प्रौद्योगिकी का हस्तांतरण धीमा हो सकता है। यह क़दम कथित रूप से चीन की नई नीति से जुड़ी है, जिसके अंतर्गत भारत और दक्षिण-पूर्व एशिया में उच्च तक़नीक विनिर्माण के लिए श्रमिकों और विशेष उपकरणों की आवाजाही को प्रतिबंधित किया गया है, जिसका उद्देश्य कंपनियों का उत्पादन स्थानांतरण से रोकना है| इस विशिष्ट घटना का अंततः सीमित प्रभाव हो सकता है, क्योंकि फॉक्सकॉन ने चीनी श्रमिकों के स्थान पर ताइवानी और वियतनामी कर्मचारियों को नियुक्त कर लिया है और भारत में कंपनी का परिचालन जारी है। फिर भी, श्रम और उपकरण आपूर्ति श्रृंखलाओं पर चीन के प्रतिबंधों से भारत के समनुक्रमों का विस्तार करने और इलेक्ट्रॉनिक्स विनिर्माण में एक प्रमुख खिलाड़ी बनने की क्षमता प्रभावित होती है, जो वर्तमान सरकार का एक प्रमुख उद्देश्य है। कृषि क्षेत्र में, चीन ने भारत को कृषि उत्पादकता बढ़ाने के लिए आवश्यक विशेष उर्वरक निर्यात प्रदान करने पर रोक लगा दी है। भारतीय कृषक चीनी उत्पादों पर अधिक निर्भर हैं, तथा भारत के विशेष उर्वरक आयात का 80 प्रतिशत हिस्सा इन उत्पादों का है। स्पष्ट प्रतिबंध लागू करने के बजाय, अधिकारी कथित तौर पर भारत भेजे जाने वाले भारपौत का निरीक्षण नहीं कर रहे हैं, जो सामान निर्यात करने की मंज़ूरी के लिए एक प्रक्रियात्मक आवश्यकता है – जिससे प्रशासनिक देरी के कारण निर्यात पर वास्तविक रूप से रोक लग रही है।
पिछले कुछ महीनों में भारत के विरुद्ध चीन की आर्थिक चालें समग्र द्विपक्षीय संबंधों में किसी भी प्रकार की नरमी की नींव की दुर्बलता को प्रकट करती है।
दुर्लभ-पृथ्वी धातुओं पर चीन के निर्यात प्रतिबंधों ने भी भारत को प्रभावित किया है, क्योंकि भारपौत में देरी से ऑटोमोटिव उत्पादन में व्यवधान उत्पन्न हुए हैं तथा भारत के इलेक्ट्रिक वाहनों के लिए बड़े पैमाने पर प्रयास में बाधा आई है| जून के आरंभ में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, चीन ने भारत जाने वाले भारपौत के लिए कम से कम दो आवेदनों को अस्वीकार कर दिया तथा वाहन निर्माताओं को आपूर्ति महीनों से चीनी बंदरगाहों पर अटकी हुई है। भारत सरकार ने कहा है कि उन्होंने इस मुद्दे पर चीन को अपनी चिंताओं से अवगत करा दिया है। जून में चीनी उप-विदेश मंत्री सुन वेइदोंग की नई दिल्ली यात्रा के दौरान इस विषय को उठाया गया था। जयशंकर ने अपनी बीजिंग यात्रा के दौरान भी इस बात को दोहराया था। संबंधों में सतही गर्मजोशी के बावजूद, ये घटनाक्रम चीन की उस मंशा को दर्शाते हैं जिसके अंतर्गत वह प्रमुख क्षेत्रों में भारत के विकास को सीमित करना चाहता है और दीर्घकालिक रूप से भारत को एक संभावित आर्थिक चुनौती के रूप में उसको देखते हुए उसके उत्थान को रोकना चाहता है।
चीन और भारत-पाकिस्तान संघर्ष
मई के आरंभ में, भारत के साथ संघर्ष के दौरान पाकिस्तान को चीन का समर्थन, जो कि उसके साथ उसकी “सदाबहार रणनीतिक सहयोगात्मक साझेदारी” के रूप में भारत के लिए चिंताजनक है क्योंकि यह भारत के विरुद्ध रणनीतिक छद्म प्रतिनिधि के रूप में इस्लामाबाद के प्रति बीजिंग की स्थायी प्रतिबद्धता को दर्शाता है। इस समर्थन की प्रकृति और दायरा इस बात का संकेत है कि चीन, भारत के उदय को रोकने और विभिन्न मोर्चों पर दबाव बनाए रखने के लिए पाकिस्तान को एक अनिवार्य उपकरण मानता है। हालाँकि, उसने प्रत्यक्ष सैन्य हस्तक्षेप से पाकिस्तान का साथ नहीं दिया है, परंतु बीजिंग ने पाकिस्तान को कूटनीतिक, तकनीकी और भौतिक सहायता प्रदान की।
कूटनीतिक रूप से, चीन ने संघर्ष के दौरान पाकिस्तान के साथ एकजुटता व्यक्त की, विदेश मंत्री वांग यी ने कहा कि चीन “पाकिस्तान की वैध सुरक्षा चिंताओं को पूर्ण रूप से समझता है और उसकी संप्रभुता और सुरक्षा हितों की रक्षा में पाकिस्तान का समर्थन करता है।” चीनी विदेश मंत्रालय के बयानों में भी संयम बरतने का आग्रह किया गया, परन्तु भारत की सैन्य कार्यवाही को “खेदपूर्ण” बताया गया, जिससे पाकिस्तान का रुख और प्रबल हो गया|

सैन्य तौर पर चीन पाकिस्तानी सशस्त्र बलों के लिए एक महत्वपूर्ण आपूर्तिकर्ता बना हुआ है। पाकिस्तान के 81 प्रतिशत हथियार चीन से आयात किए जाते हैं। इसके साथ, उतनी ही प्रभावशाली बात यह है कि चीन के कुल हथियार निर्यात का 63 प्रतिशत पाकिस्तान को प्राप्त होता है, जो कि अब तक का उसका सबसे बड़ा हिस्सा है। यह घनिष्ठ रक्षा साझेदारी चीनी सैन्य प्रभाव को भारत की पश्चिमी सीमा तक प्रभावी ढंग से गाढ़ा करती है|
भारतीय सेना ने मई 2025 के संघर्ष के दौरान पाकिस्तान को चीन द्वारा युद्ध के दौरान सहायता दिए जाने का भी आरोप लगाया है। भारतीय उप-सेना प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल राहुल सिंह ने सार्वजनिक रूप से कहा कि चीन ने पाकिस्तान को भारत के प्रमुख ठिकानों की “सीधा प्रसारण सूचनाएँ” दीं, जो भारत के विरुद्ध रणनीतिक सैन्य ख़ुफ़िया जानकारी प्रदान करने में चीन के समर्थन का पहला आधिकारिक उल्लेख है। उन्होंने आगे आरोप लगाया कि चीन पाकिस्तान को हर संभव सहायता प्रदान कर रहा है और बीजिंग ने इस संघर्ष को उसके हथियारों के परीक्षण के रूप में देखा जा रहा है, जिसमें जे-10सी लड़ाकू विमान का प्रथम बार सक्रिय संघर्ष में समिल्लित होना भी अंकित है|
पाकिस्तान ने भी इस चीनी सहायता का संकेत दिया है। रक्षा मंत्री ख्वाजा आसिफ ने ख़ुफ़िया सहायता को स्पष्ट करते हुए कि मित्र देशों के लिए ख़तरों पर ख़ुफ़िया जानकारी साझा करना आम बात है और उन्होंने यह भी कहा कि पाकिस्तान और चीन दोनों के भारत के साथ ‘विवादास्पद मसले’ हैं। इसके अतिरिक्त, पूर्व पाकिस्तानी विदेश मंत्री और पाकिस्तान पीपल्स पार्टी के अध्यक्ष बिलावल भुट्टो ने संघर्ष के दौरान स्पष्ट चीनी समर्थन के लिए संयुक्त राष्ट्र में चीनी राजदूत का आभार व्यक्त किया।
इस समर्थन की प्रकृति और दायरा इस बात का संकेत है कि चीन, भारत के उदय को रोकने और विभिन्न मोर्चों पर दबाव बनाए रखने के लिए पाकिस्तान को एक अनिवार्य उपकरण मानता है।
चीन की विदेश नीति में ये हथकंडे नए नहीं हैं। चीन ने ऑस्ट्रेलिया और लिथुआनिया के विरुद्ध भी स्पष्ट आर्थिक दबाव डाला है। इसके अलावा, चीन ने यूक्रेन के साथ युद्ध में रूस का समर्थन किया है। चीनी विदेश मंत्री वांग यी ने बंद द्वार के पीछे संकेत दिया कि मॉस्को को यह समर्थन वाशिंगटन का पूरा ध्यान चीन से भटकाने के लिए है। इसी प्रकार से, पाकिस्तान का समर्थन करने से भारत अपने पड़ोस में ही उलझा रहता है और चीन-भारत संबंधों में अविश्वास में वृद्धि होती है|
भारत का रणनीतिक दृष्टिकोण
ये घटनाक्रम बताते हैं कि आर्थिक सहयोग को सुरक्षा प्रतिस्पर्धा से अलग रखने की नई दिल्ली की चीन नीति के प्रति पारंपरिक दृष्टिकोण अब व्यावहारिक नहीं रहा। 2020 में गलवान घाटी में हुई झड़प के बाद यह दृष्टिकोण और भी प्रबल हो गया, जब भारत ने द्विपक्षीय संबंधों में प्रगति के लिए सीमा समझौते को एक शर्त बना दिया। हालाँकि द्विपक्षीय राजनयिक संबंध फिर से बहाल हो गए हैं और वास्तविक नियंत्रण रेखा पर टकराव के बिंदुओं को सुलझा लिया गया है, चीन-भारत तनावपूर्ण संबंधों में सार्थक शिथिलता नहीं आई है। भारत को यह समझना होगा कि इन राजनयिक प्रयासों के बावजूद, चीन भारत को एक प्रतिस्पर्धी के रूप में देखता है|
इसके उत्तर में, नई दिल्ली को आर्थिक साझेदारियों में विविधता लाने, वैकल्पिक आपूर्ति श्रृंखलाओं को प्रबल करने और चीन के साथ निरंतर रणनीतिक प्रतिस्पर्धा हेतु तैयार रहने के प्रयत्नों में तेज़ी लानी चाहिए। ऐसे प्रयास पहले से ही चल रहे हैं, और भारत और सऊदी अरब ने जुलाई में उर्वरकों की दीर्घकालिक आपूर्ति के लिए एक समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं। भारत सरकार ने आयात पर भारत की भारी निर्भरता को कम करने और घरेलू और वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं को प्रबलता प्रदान करने हेतु इस वर्ष के प्रारम्भ में राष्ट्रीय दुर्लभ खनिज मिशन की घोषणा की थी। आंतरिक रूप से, राज्य-स्तरीय नियामक बाधाओं को दूर करने से निजी निवेश के लिए परिस्थितियाँ उत्पन्न होंगी| इसके अतिरिक्त, भारत की चीन नीति के राष्ट्रीय सुरक्षा बनाम आर्थिक पहलुओं पर भारत में सार्वजनिक बहस हुई है। परन्तु, राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय को अन्य मंत्रालयों और विदेश मंत्रालय के आंतरिक चीन विशेषज्ञ समूह, समसामयिक चीनी अध्ययन केंद्र के साथ सहयोग करना चाहिए, ताकि भारत में चीनी उपस्थिति, आपूर्ति श्रृंखला की स्वतंत्रताएं और स्वदेशीकरण या विशिष्टता भागीदारी निजी क्षेत्र के साथ सहयोग का व्यापक सरकारी अध्ययन किया जा सके। केवल चीनी दबाव के प्रति कमजोरियों को कम करके तथा प्रतिकारी साझेदारियां बनाकर ही भारत अपनी सामरिक स्वायत्तता को सुरक्षित रख सकता है तथा एक प्रमुख वैश्विक खिलाड़ी के रूप में खुद को ओर अधिक उन्नत कर सकता है|
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This article is a translation. Click here to read the original in English.
Image 1: EAM S. Jaishankar via X
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