** इस श्रृंखला का दूसरा भाग यहां पढ़ें। **
म्यांमार के रखाइन प्रांत से आने वाले रोहिंग्या मुसलमान, जनसंख्या लगभग दस लाख, मूल रूप से राज्यहीन हैं। १९८२ के बर्मा नागरिकता विधि के अनुसार सरकार ने रोहिंग्या के नागरिकता अधिकार रद्द कर दिए और आवागमन और शिक्षा जैसे मौलिक अधिकार भी नहीं दिए गए। इसके बाद उनके विरुद्ध सैन्य कार्रवाई की गई। कई वर्षों तक अत्याचार जारी रहा जिसके कारण संयुक्त राष्ट्र ने रोहिंग्या को विश्व का सबसे अधिक पीड़ित अल्पसंख्यक समुदाय बताया।
नवंबर २०१६ से शुरू होने वाली सैन्य कार्रवाइयों के कारण रोहिंग्या शरणार्थियों की स्थिति पुन: चर्चा में आ गई है। इस महीने के प्रारंभ म्यांमार सरकार ने रखाइन प्रांत में सैन्य कार्रवाई बढ़ाने की घोषणा कर हजारों रोहिंग्या को पलायन करने पर मजबूर कर दिया। निर्दलीय रिपोर्टों के अनुसार ४०० लोग मारे गए जब कि अन्य रोहिंग्या समुदायों के सदस्यों के साथ सामूहिक बलात्कार , सैन्य छापे और आगजनी की वारदातें हुई।
परिणामस्वरूप, पड़ोसी देश बांग्लादेश और भारत में रोहिंग्या शरर्णाथी भारी संख्या में आ गए हैं। पिछले कुछ ही दिनों में ३ लाख रोहिंग्या ने बांग्लादेश में शरण ली है। अगस्त में, भारत सरकार ने ४०००० रोहिंग्या प्रवासियों को निर्वासित करने की घोषणा की। ऐसे हताश समय में कम से कम यह तो आशा की जा सकती है कि भारत बसे हुए रोहिंग्या को तो निर्वासित न करे।
भारत में शरणार्थियों के स्वागत और उत्पीड़ित जनता को सुरक्षित ठिकाना प्रदान करने की एक लम्बी परम्परा रही है, इसके उदाहरण हैं १९४७ में विभाजन के दौरान पूर्वी बंगाल के शरणार्थी और १९६० के दशक में तिब्बती निर्वासित लोग। परंतु यदि ध्यान से देखा जाए तो यह स्पष्ट हो जाता है कि भारत की शरणार्थी नीतियों में भेदभाव के संकेत हैं और वह भारत के लोकतंत्र और सहिष्णुता मूल्यों के विरोध हैं। उदाहर्णाथ, चकमा एवं रोहिंग्या शरणार्थियों और तिब्बत एवं श्रीलंका के शरणार्थियों के बीच सरकार के बर्ताव में काफी अंतर है। यद्यपि भारतीय सरकार चकमा शरणार्थियों को नागरिकता प्रदान करने जा रही है, लेकिन अरुणाचल प्रदेश में ज़मीन प्राप्त करने में वे फिर भी काफी मुश्किलों का सामना करेंगे। किंतु यह जानना कठिन है, ऐसी अधिमान्य नीतियां निहित राजनीतिक हितों और शरणार्थियों के देशों से ऐतिहासिक संबंधों के कारण हो सकती हैं। शायद इसी को ध्यान में रख कर भारतीय राजनेता यह तय करते हैं कि कौन से शरणार्थी सहायता के योग्य हैं और कौन नहीं। भारत में रोहिंग्या शरणार्थियों से संबंधित कठिनाइयों को हल करने के लिए सरकार को शरणार्थियों के लिए एक सहायक न्याय व्यवस्था लागू करने और मुस्लिम शरणार्थियों के खिलाफ बढ़ती असहिष्णुता के समाधान के लिए कदम उठाने चाहिए।
अपर्याप्त न्याय व्यवस्था
भारत की न्याय व्यवस्था में कमियों के कारण शरणार्थि राज्य की दया पर हैं। चूंकि भारत ने संयुक्त राष्ट्र के शरणार्थियों के लिए उच्च आयोग (यूएनएचसीआर) की १९५१ शरणार्थी सम्मेलन की पुष्टि नहीं की है और क्योंकि शरणार्थियों की स्थिति के संबंध में कोई घरेलू न्याय व्यवस्था नहीं है, इसलिए भारत में शरणार्थियों के प्रति पक्षपाती नीतियों की जांच के लिए कोई तंत्र नहीं है। अवैध आप्रवासियों और शरणार्थियों की स्थिति को विभाजित करने वाली रेखा अस्पष्ट है, जिसके कारण शरणार्थियों से जुड़े मानवीय संकट से निपटने के लिए राज्य को पूरा अधिकार मिल गया है।
कई बार, अदालत शरणार्थियों के अधिकारों के बचाव में आई है। उदाहरण के लिए , १९८३ के मिथु बनाम पंजाब राज्य मामले में उच्चतम न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद २१ के तहत शरणार्थियों को सुनिश्चित जीवन और स्वतंत्रता अधिकारों पर बल दिया। उच्चतम न्यायालय ने यह भी कहा कि क्या विधि द्वारा स्थापित किसी प्रक्रिया से किसी व्यक्ति को प्राण या दैहिक स्वतंत्रता से वंचित करना निष्पक्ष, न्यायसंगत और युक्तियुक्त है, इसका निर्णय न्यायालय करेगा। परंतु न्यायिक हस्तक्षेप केवल अस्थायी उपाय है। अंत में, केवल बाध्यकारी विधान ही एक स्थायी समाधान प्रदान कर सकता है।
असहिष्णुता की लहर
न्याय व्यवस्था में कमियों के साथ साथ , भारत की भेदभावपूर्ण शरणार्थी नीतियों के पीछे एक और कारण हो सकता है–राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कुछ सदस्यों द्वारा प्रसारित हिंदू-राष्ट्रवादी प्रवचन । संघ को व्यापक रूप से भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का अभिभावक संगठन माना जाता है और उसके कुछ सदस्यों ने कई मुसलमानों का ज़बरदस्ती धर्म-परिवर्तन किया है और गौ हत्या प्रतिबंधों के माध्यम से मुसलमानों को लक्ष्य बनाया है। पर्यवेक्षकों ने यह भी दिखाया है कि भाजपा द्वारा विकसित कई विधान मुस्लिम समुदाय पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकते हैं।
यदि इस संदर्भ में देखा जाए तो रोहिंग्या का निष्कासन इन पूर्वाग्रहित प्रवतीयों के अनुसार है जिसकी वजह से कट्टरपंथी राजनेता इन कमज़ोर लोगों को हिंदुत्व परियोजना के लिए खतरा बताते हैं। भारत के गृह मंत्रालय का यह व्यक्त करना कि रोहंग्या वह अवैध आप्रवासी हैं जो न सिर्फ भारतीय नागरिकों के अधिकारों का उल्लंघन करते हैं पर भारत के लिए गंभीर सुरक्षा चुनौतियाँ प्रदान करते हैं एक अप्रमाणित विचारधारा को आगे बढ़ाता है।
यह सच है कि आप्रवासियों का प्रवाह किसी भी देश के संसाधनों पर दबाव डाल सकता है और यह एक वैध चिंता का विषय है। फिर भी, रोहिंग्या के प्रति सरकार के विभेदक दृष्टिकोण को अनदेखा नहीं किया जा सकता। विशेषतह तब जब श्रीलंका और तिब्बत से आए बढ़े शरणार्थी समुदायों को निर्वासन और आजीविक नुकसान का सामना नहीं करना पढ़ा है।
समय की मांग
अवैध अप्रवासियों के बजाय शरणार्थियों को सब से पहले मनुष्य के रूप में देखा जाना चाहिए। वे राजनेताओं के खिलौने या असुविधाजनक उपद्रव नहीं हैं जिनको अनदेखा किया जा सके। उन्हें निर्वासन की चिंता किया बिना एक सामान्य जीवन जीने का अधिकार होना चाहिए। भारत १९५१ रेफ़्यूजी कन्वेंशन का हस्ताक्षरकर्ता नहीं है, लेकिन उसपर “नॉन –रिफॉलमेंट” का व्यावहारिक अन्तर्राष्ट्रीय कानून बाध्य है , जो शरणार्थियों को उस देश में वापस भेजने से रोकता है जहां उन्हें उत्पीड़न का सामना करना पड़ सकता है। यदि भारत सरकार लोकतांत्रिक और मानवतावादी मूल्यों को बनाए रखना चाहती है, जो देश के संविधान के आधार हैं, तो यह आवश्यक है कि वह राज्यों को विभाजित करने वाली सीमाओं को अनदेखा करे और जरूरतमंद लोगों का स्वागत करे। यही वह भारत है जिसकी कल्पना हमारे पूर्वजों ने की थी और जिसकी ओर हमें जाना चाहिए।
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Image 1: Andrew Mercer via Flickr
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