अपने पहले पाँच वर्षों के सफल कार्यकाल के दम पर, 2004 के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने अत्यंत उत्साहपूर्वक वापस विजयी होने की अपेक्षा कि की थी | उस चुनाव के दौरान भाजपा का नारा था “इंडिया शाइनिंग” और सभी जनमत सर्वेक्षणों ने भाजपा की आरामदायक विजय का पूर्वानुमान लगाया था | परन्तु, इस आत्मविश्वास के बावजूद, भाजपा को उनचुनावों में पराजय मिली और अगले दशक तक उसे भारतीय संसद के विपक्षी दल के रूप में लगातार अपना स्थान ग्रहण करना पड़ा | यह एक मनोवैज्ञानिक टूटन के समान था: ‘इंडिया शाइनिंग’ को अहंकार और अत्यधिक आत्मविश्वास के खतरों के दृष्टांत के रूप में वर्णित किया जाने लगा |
ठीक दो दशक बाद, 2024 के चुनाव में, भाजपा को पुन: ‘इंडिया शाइनिंग’ के दर्दनाक सबक से जूझना पड़ा| जनमत सर्वेक्षणों और लोकप्रिय आख्यानों के अनुसार भाजपा की जीत निश्चित थी, जिससे मोदी और पार्टी का आत्मविश्वास और भी बढ़ गया| भाजपा का चुनावी अभियान केवल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इर्द-गिर्द केन्द्रित था | भाजपा के घोषणापत्र का शीर्षक भी ‘मोदी की गारंटी’ था और इस घोषणापत्र के माध्यम से, भाजपा ने मतदाताओं से न केवल पार्टी को फिर से चुनने का आह्वान किया, बल्कि भाजपा को भारतीय संसद के प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित सदन, लोकसभा, में 543 में से 370 सीटें देने की गुहार भी लगाई |
इस सन्दर्भ में, मतदान के अंतिम दिन के उपरांत, एग्जिट पोल ने भाजपा की विजय की सम्भावना पर मोहर लगाई, परंतु जब परिणाम सामने आए, तो सभी अनुमान विफल साबित हो गए | अंत में, भाजपा के खाते में बहुमत के आंकड़े से 32 सीटे कम आईं, और भाजपा ने केवल 240 सीटों पर विजय प्राप्त की | सीटों की संख्या में भी इस बार कटौती देखी गई — उदाहरण के तौर पर, जहाँ भाजपा को 2019 के चुनाव में 303 सीटें मिली थी, वहीँ 2014 में 283 सीटों के साथ भाजपा ने स्वयं पूर्ण बहुमत प्राप्त किया था| अपितु 2024 के चुनावों में, भाजपा सरकार की वापसी एक गठबंधन सरकार के रूप में भाजपा के सहयोगी दलों की सहायता से हुई | इस उभरते परिपेक्ष में, भाजपा और स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की प्रतिष्ठा घटी है|
आंकड़ों की राजनीति
2024 के आम चुनावों के पश्चात्, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पहली बार अपना बहुमत सुरक्षित रखने के लिए अन्य राजनैतिक दलों पर निर्भर होना पड़ा | इस के अतिरिक्त, भाजपा ने न केवल महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल और कर्नाटक जैसे गैर-हिंदी भाषी राज्यों में सीटें खो दीं, बल्कि भाजपा की धार्मिक और भाषा आधारित राजनीति के गढ़ एवं भारत के सबसे अधिक आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश में भी सीटें गवाईं|
पिछले दो चुनावों में बीजेपी और उसके सहयोगियों ने यूपी की 80 सीटों में से क्रमश: 72 और 64 सीटें जीती थीं। इस बार, वे केवल 35 सीटें जीतने में सफल रहे और उल्लेखनीय रूप से विपक्षी ‘इंडिया’ समूह से पीछे रह गए, जिसने 43 सीटें जीतीं। राष्ट्रीय स्तर पर, कांग्रेस के नेतृत्व वाले इंडिया ब्लॉक को 232 सीटें और 41.4 प्रतिशत वोट मिले, जो भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए के 44 प्रतिशत से कुछ ही प्रतिशत दूर है। जहाँ भाजपा ने दक्षिणी और पूर्वी राज्यों में नए क्षेत्रों में विस्तार कर अपने नुकसान की कुछ हद तक भरपाई की, वहीं आंकड़ों के माध्यम से पाया गया कि चुनाव लड़े गए 399 निर्वाचन क्षेत्रों में से 274 में भाजपा का वोट शेयर कम हो गया । ज़ाहिर है, इन कारणों की वजह से, मोदी का जलवा या उनकी स्टार क्वालिटी, जिसने पिछले दशक में भाजपा की अविश्वसनीय वृद्धि और प्रभुत्व को बढ़ावा दिया था, अब दुर्बल पड़ गई है|
इंडिया शाइनिंग 2.0
न केवल कथा निर्माण (narrative construction) बल्कि पूरा चुनावी मैदान ही भाजपा के पक्ष में था | इसके अतिरक्त, मोदी और भाजपा के पास दूसरों की तुलना में कहीं अधिक वित्तीय संसाधन थे। अधिकांश मीडिया ने सरकार की इच्छाओं का अनुसरण किया तथा विपक्ष पर कटाक्ष करने के लिए अपने प्रसारण समय का उपयोग भी किया। चुनावों के दौरान विपक्ष के शीर्ष नेताओं को गिरफ्तार कर कारागार में भी डाल दिया गया | इसके अलावा, अन्य विपक्षी दलों में फूट डालने और उनके नेताओं को दल छोड़ने के लिए भी मनाया गया|
इन विषम परिस्थितियों के बावजूद, विपक्ष की आश्चर्यजनक सफलता बताती है कि मोदी के सत्ताधीश बनने के बाद भी, विपक्ष के प्रमुख गणमान्य व्यक्ति अपनी सफलता का उत्सव क्यों मना रहे हैं| जैसा कि कई पर्यवेक्षकों ने कहा है, यह सच है कि सरकार में निरंतरता है और यह कैबिनेट और मंत्रिपरिषद में बहुत कम बदलाव से दिखाई देता है। लेकिन मोदी की अजेयता की आभा का टूटना इस चुनाव के असल प्रभाव को प्रदर्शित करता है| इस चुनाव के नतीजों का प्रभाव भारतीय चुनाव आयोग जैसी संस्थाओं पर सकारात्मक रूप से होगा, जो अब गठबंधन प्रणाली के तहत अपनी बात अधिक मजबूती से रख सकेगा
इन आश्चर्यजनक परिणामों के तुरंत बाद, इंटरनेट मीम्स और टिप्पणियों से भर गया, जिसमें कहा गया कि भाजपा के गठबंधन सहयोगी मोदी की सत्ता को केंद्रीकृत करने और परामर्श के बिना एकतरफा कार्रवाई करने की प्रवृत्ति को प्रतिबंधित करेंगे| लेकिन अब इस टिपण्णी की वास्तविकता पर प्रश्न चिन्ह लगाए जा रहे हैं|
भाजपा के भीतर हमेशा से यह चिंता रही है कि मोदी के बाद दल के तारे गर्दिश में जा सकते हैं | लेकिन मोदी के सत्ता में रहते हुए बीजेपी की लोकप्रियता में यह कमी बताती है कि भारत अब एक नए राजनीतिक युग में प्रवेश कर कर रहा है| और यह भी कि भाजपा के वर्चस्व का दौर, जो कई लोगों के अनुसार साल-दर-साल रहने वाला था, अब समाप्ति की तरफ़ कूँच कर रहा है|
विजय भवः
समाचार पत्र “द हिंदू” के वर्गीस जॉर्ज ने चेतावनी के साथ अंकित किया है कि हर राजनैतिक दल 2024 के चुनावों के परिणाम से प्रसन्न है: मोदी, क्योंकि वह दस साल की सत्ता विरोधी लहर के बावजूद सत्ता में बने हुए हैं, और कांग्रेस के राहुल गांधी, क्योंकि उन्होंने राजनीतिक वैधता अर्जित की है।
आगे वह कहते हैं कि केन्द्रवादी और संघवादी/क्षेत्रवादी खुश हैं, धार्मिक राष्ट्रवादी और धर्मनिरपेक्षतावादी भी खुश हैं। और जॉर्ज के विचार में भाजपा और श्री मोदी की कथित अपरिहार्य जीत से जुड़े भाग्यवाद के पतन ने भाजपा मतदाता और उसके ज़मीनी कार्यकर्ताओं और नेताओं को भी सशक्त बनाया है, क्योंकि उन्हें आश्वासन है कि उनके विचारों को अब नकारा नहीं जा पाएगा|
शासन और नीतिगत प्राथमिकताओं के क्षेत्र में क्या अपेक्षाएँ की जा सकती हैं? बाज़ार और अर्थव्यवस्था की जानकारी रखने वालों की एक आम धारणा यह है कि मोदी के तीसरे कार्यकाल में लोकलुभावन पूर्वाग्रह का डर है, जिससे कठोर आर्थिक सुधारों में विलम्ब हो सकता है।
दिलचस्प बात यह है कि कुछ व्यक्ति यह तर्क दे रहे हैं कि यह जनादेश, जो भाजपा की सत्ता पर अंकुश लगाता है तथा कम से कम स्थिरता और निरंतरता का दिखावा भी करता है, अधिक सुदृढ़ परिणाम लाएगा| इस कारण वश भारत आर्थिक, राजनीतिक, और विदेशी मंच पर भी लाभान्वित होगा| यह मूलाधार केवल इस व्यापक समझ पर निर्भर नहीं है कि भारत में पिछली गठबंधन सरकारों ने अव्यवस्थित और बोझिल होने की धारणा को खारिज करते हुए सुधार लाने का रिकॉर्ड स्थापित किया था|
यह तर्क उससे भी अधिक विशिष्ट है। विदेश नीति के सन्दर्भ में, सी राजा मोहन का तर्क है कि इन नतीजों से मोदी की सत्तावादी प्रवृत्तियों के बारे में सवालों का जवाब देने के लिए पश्चिमी सरकार पर दबाव कम हो जाएगा| ऐसी स्तिथि में, विशेष रूप से अमेरिका-चीन प्रतिस्पर्धा को देखते हुए, पश्चिमी देश और भारत समान हितों पर कार्य करने में प्रबल होंगे|
राजनीतिक अर्थव्यवस्था के सन्दर्भ में, प्रणब धाल सामंत का सुझाव है कि भाजपा के सहयोगी दल सरकार के लिए सुरक्षा कवच का काम कर सकते हैं, जिस कारण वश सरकार बिना किसी अवरोध के आर्थिक विकास पर ध्यान दे सकती है| सिंगापुर में निवेशकों के एक सम्मेलन में अनंथा नागेश्वरन ने भी राज्यों के हाथों में पड़े अनेक नीतिगत मामलों का उल्लेख करते समय दावा किया कि 2024 का चुनाव परिणाम कारक बाजार सुधारों के होने की संभावना को कम करने के बजाय बढ़ाता है, एवं संवाद और आम सहमति के अवसर भी विकसित करता है |
इनमें से हर एक निष्कर्ष के पीछे एक अंतर्निहित धारणा है: कि मोदी और भाजपा नेतृत्व अपनी शासन विधि में परिवर्तन लाएगा और परामर्शात्मक दृष्टिकोण का विस्तार करेगा | अपने दूसरे कार्यकाल में, भाजपा के पास संसद के माध्यम से जटिल नीतियों को अग्रसर करने का कोई उल्लेखनीय रिकॉर्ड नहीं है| इस कारण वश भाजपा ने चौंकाने वाले और खौफ पैदा करने वाले तरीकों का सहारा लिया है जिसका उद्देश्य विपक्ष को आश्चर्यचकित करना है। 4 जून के परिणामों के आने के बाद भी, प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने भाजपा की कम संख्या को स्वीकार नहीं किया या संकेत दिया कि वह नीति निर्माण के लिए अपने दृष्टिकोण को परिवर्तित करेंगे|
फिर भी, भाजपा के पास वरिष्ठ नेता हैं जो गठबंधन सहयोगियों और विपक्ष के साथ भी आपसी सूझ-बूझ को बढ़ावा देते हैं| ऐसे प्रयासों से सुधारों की संभावना में वृद्धि होती है। इस सन्दर्भ में, हालाँकि, भाजपा की अत्यधिक द्रीकृत संरचना पैंतरेबाज़ी के लिए बहुत कम जगह प्रदान करती है, और भाजपा के वरिष्ठ नेताओं को अपनी बात मनवाने के लिए परस्पर प्रधान मंत्री कार्यालय की ओर कूँच करनी पड़ती है|
इस परिपेक्ष में, सत्ता को मौलिक रूप से पुनर्गठित और एक हद तक विकेंद्रीकृत करने के लिए पर्यवेक्षकों के अनुसार, सरकार को परामर्शी शासन पर बल देना होगा ताकि सुधारों को प्राथमिकता दी जा सके| परन्तु, बावजूद इसके, इस बात का कोई संकेत नहीं है कि मोदी ऐसा करने का इरादा रखते हैं—या कि उनका दल, आम सहमति बनाने में सक्षम है।
इसका दोष किस पर है? (और अगला नेता कौन है?)
विषय-वस्तु के संदर्भ में नहीं, बल्कि उसके स्रोत के कारण, 2024 के चुनावी नतीजों के बाद मोदी और भाजपा पर आश्चर्यजनक आरोप लगे हैं| राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के प्रमुख मोहन भागवत ने एक भाषण में, बिना किसी का नाम लेते हुए, भाजपा को फटकार लगाई| भागवत ने कहा कि चुनावों को युद्ध के बजाय प्रतिस्पर्धा के रूप में देखा जाना चाहिए| उन्होंने यह कहा कि 2024 चुनावों में शिष्टाचार कायम नहीं रखा गया | इसके अतिरिक्त, किसी व्यक्ति विशेष की तरफ संकेत किए बिना, भागवत ने यह उल्लेख भी किया कि लोगों का एक सच्चा सेवक अहंकारी नहीं होता है |
आरएसएस भाजपा की वैचारिक मातृसंस्था है और इसके नेतृत्व तथा कार्यकर्ताओं का समर्थन भाजपा की चुनावी उत्तीर्णता के लिए आवश्यक माना जाता है। प्रधानमंत्री मोदी के आरएसएस के साथ गहरे संबंधों के बावजूद, आरएसएस की मोदी के प्रति असहजता की अफ़्वाह हमेशा से रही हैं। आमतौर पर इस दरार का कारण मोदी की एक बड़ी, लगभग दिव्य छवि के इर्द-गिर्द भाजपा के पुनर्गठन को माना जाता है, क्योंकि आरएसएस सामूहिक और वैचारिक प्रयत्नों को विशेष प्राथमिकता देता है। परन्तु, इसके बावजूद, आरएसएस ने बीजेपी के साथ मिलकर काम करना बंद नहीं किया। इसके उदाहरणों में भाजपा उम्मीदवारों के साथ आरएसएस का समन्वय शामिल है, जैसे वॉर रूम स्थापित करना और घर-घर जाकर प्रचार करना।
इन घटनाक्रमों को देखते हुए, माना जाने लगा है कि के चुनावों के दौरान यह दरार और गहरी हो गई है| यूपी से मिली खबरों को माने तो इस बार बीजेपी के प्रचार में आरएसएस ने सक्रिय भूमिका नहीं निभाई| यहाँ तक की,भाजपा अध्यक्ष ने एक साक्षात्कार में यह असामान्य दावा किया कि भाजपा को अब आरएसएस के समर्थन की आवश्यकता नहीं है|
2004 में, भाजपा की नाटकीय और अकस्मात् पराजय के बाद, पूर्व उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने इस बात की पुष्टि की थी कि ‘इंडिया शाइनिंग’ का नारा एक भूल के समान था और दुर्भाग्यवश उनके दल के कार्यकाल के समय, विकास की और केंद्रित योजनाओं का सामान रूप से वितरण नहीं हुआ| उस वर्ष में कथित तौर पर आरएसएस ने पार्टी के लिए प्रचार नहीं किया था|
2024 और 2004 के बीच अंतर है| और 2024, 2004 नहीं है—कम से कम इसलिए नहीं कि भाजपा सत्ता में बनी हुई है। दोनों संगठनों के बीच किसी बड़े मतभेद की उम्मीद कम ही लोगों को है| यद्यपि, मोहन भागवत की आलोचना एक मुख्य प्रश्न पर रौशनी डालती है: इस चुनावी झटके से भाजपा क्या सबक लेगी और किस तरह के सुधारों की उम्मीद है? भाजपा इन सवालों पर “पोस्टमार्टम” के माध्यम से गहराई से विचार कर रही है, और इस वर्ष के अंत में होने वाले प्रमुख राज्य चुनावों पर अपना ध्यान केंद्रित कर रही है| बावजूद इसके, जो लोग 73 वर्षीय मोदी के तीसरे कार्यकाल का आंकलन करेंगे, वे यह बात अवश्य सुनिश्चित करना चाहेंगे कि मोदी के बाद भाजपा के नेता कौन बनेंगे| इस सवाल का जवाब भारतीय राजनीति की आगे की दिशा बताएगा|
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Image 1: Congress supporters campaigning door-to-door via Al Jazeera on Flickr
Image 2: BJP and Shiv Sena party flags via Al Jazeera on Flickr