एक दशक से भी अधिक समय से, नई दिल्ली और वाशिंगटन में एक रणनीतिक सहमति बन रही थी – कि उभरते चीन को नियंत्रित करने हेतु उनकी साझेदारी सबसे बेहतर विकल्प है। एशिया में, अमेरिका भारत को चीनी आधिपत्य को रोकने के लिए एक मज़बूत ढाल मानता था, जबकि, भारत चीन के एक महाशक्ति बनने की गति को संतुलित करने के लिए अमेरिका के साथ साझेदारी चाहता था। हालाँकि, यह महत्त्वपूर्ण योजना अब एक बाधा से जूझ रही है।
अमेरिका-भारत संबंधों को झटका राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के हाल के प्रशुल्क (tariff) से लगा, इसी समय बीजिंग के साथ नई दिल्ली की नरमी जो पाँच वर्ष के सीमा गतिरोध के बाद संभव हुई ने भारतीय विदेश नीति के अवलोकन कर्त्ताओं के लिए एक अप्रत्याशित स्थिति पैदा की है| महामारी के पश्चात्, भारत पूर्ण रूप से अपने आरामदायक क्षेत्र में दिखा: आर्थिक आरोग्यता में तत्परता, सीमा पर चीनी दबाव को झेलने में सक्षमता, एवं के साथ, रूस के प्रश्न पर चतुराई से पश्चिम का प्रबंधन, प्रारंभिक वर्षों में कुछ अड़चनों और संबंधों को सुधारने के लिए कुछ ठोस प्रयत्नों के साथ पड़ोस में अनुकूल सरकारों के साथ संपर्क, पाकिस्तान के साथ युद्धविराम को बरकरार रखा, एवं जी 20 अध्यक्षता के दौरान अपनी महान शक्ति आकांक्षाओं पर प्रबल ज़ोर भी दिया है।
पर अब उस भू-राजनीतिक मधुशाला में भंग पड़ गया है। पिछले एक वर्ष में उपमहाद्वीप में भारत की स्थिति बिगड़ी है। अमेरिका-पाकिस्तान संबंधों में पुनः प्रवर्तन, चीन का बढ़ता भू-आर्थिक प्रभाव और बांग्लादेश व नेपाल में सत्ता परिवर्तन ने इस क्षेत्र में नई दिल्ली के लिए चुनौतियाँ उत्पन्न कर दी हैं। निरंतरता केवल, भारत के मास्को के साथ संबंधों में हैं; रूस से कच्चे तेल के आयात में वृद्धि के बाद वैश्विक तेल आपूर्ति श्रृंखलाओं में भारतीय कंपनियों का एकीकरण, जैसे कि परिशोधन और कार्गो बीमा तथा की संभावनाओं ने एक साथ, सैन्य बिक्री में आ रही रुकावटों की भरपाई हो गई है।
समय की माँग है कि भारत के मूलभूत भू-राजनीतिक चित्रण को पुनरावलोकित करे और एक ठहराव के साथ उसकी रणनीति का मूल्यांकन करे। भारत की विदेश नीति किस दिशा में जा रही है? बदलते सामरिक परिदृश्य में भारत के पास क्या विकल्प हैं? पिछले कुछ वर्षों में, भारत ने “बहु-संरेखण” कहीं जाने वाली, गुट-निरोधी विदेश नीति में मुद्दा-विशिष्ट साझेदारी विभिन्न शक्तियों के साथ विकसित की है, जिसमें कुछ तो ऐसे देश है जिनके साथ आपसी मतभेद है। बहुसंरेखण से नई दिल्ली ने क्या पाया है और क्या यह आगे भी जारी रह सकती है?
समय की माँग है कि भारत के मूलभूत भू-राजनीतिक चित्रण को पुनरावलोकित करे और एक ठहराव के साथ उसकी रणनीति का मूल्यांकन करे। भारत की विदेश नीति किस दिशा में जा रही है? बदलते सामरिक परिदृश्य में भारत के पास क्या विकल्प हैं?
भारतीय भू–राजनीति 101
भारत के रणनीतिक लक्ष्य स्वतंत्रता के बाद से ही काफ़ी हद तक एकरूप रहे हैं, जो उसके औपनिवेशिक अनुभव और सभ्यतागत स्मृति से प्रभावित है| प्रथम, भारत अपनी बड़ी जनसंख्या के उत्थान के लिए सतत आर्थिक विकास चाहता है। द्वितीय, भारत दक्षिणी एशिया में क्षेत्रीय प्रभुत्व की मंशा रखता है। एक क्षेत्रीय प्रभुत्वशाली देश के रूप में भारत के उद्देश्यों को मियरशाइमर और किंडलबर्गर से समझा जा सकता है – नई दिल्ली अपने पड़ोसियों से उत्पन्न होने वाले सैन्य और आंतरिक सुरक्षा ख़तरों को कम करने का अथक प्रयास कर रहा है। साथ ही, भारत आर्थिक एकीकरण और सार्वजनिक वस्तुओं के प्रावधान के माध्यम से क्षेत्रीय स्थिरता को बढ़ावा दे रहा है। यहाँ पर चुनौती एक प्रतिकूल सुरक्षा वातावरण में दोनों लक्ष्यों को प्राप्त करने के साथ-साथ पड़ोसियों द्वारा बाह्य शक्तियों को उपमहाद्वीप में बुलावे से रोकने का भी है।
भारत ने दक्षिण एशिया को शीत युद्ध की प्रतिद्वंद्विता में पूर्ण रूप से शामिल होने से रोका, जबकि आज उपमहाद्वीप में चीन के आक्रामक रुख से चिंताग्रस्त है। यद्यपि, भारत किसी एक महाशक्ति का सम्पूर्ण घटक या पिछलगु नहीं बन सकता। अमूमन भारत की गुटनिरपेक्षता नीति को इसका एक कारण बताया जाता है, जबकि इसका एक गहरा कारण भूगोल है: अगर किसी प्रवासी शक्ति को कभी भी उपमहाद्वीप के महाद्वीपीय और समुद्री क्षेत्रों पर अकेले ही प्रभुत्व की प्राप्ति होती है तो वे भारत की भू-राजनीतिक आकांक्षाओं को दरकिनार नहीं कर सकते है। इसलिए, अपने हितों की रक्षा के लिए भारत को सावधानीपूर्वक बाह्य संतुलन से समर्थित आंतरिक संतुलन पर ध्यान केंद्रित करना होगा।
आंतरिक संतुलन, आर्थिक और सैन्य शक्ति के निर्माण पर आधारित है, जबकि बाह्य संतुलन गठबंधनों पर निर्भर है। भारत उन साझेदारियों को महत्त्व देता है जो चार स्तंभों: रक्षा स्वदेशीकरण, प्रौद्योगिकी हस्तांतरण, आर्थिक विकास और मानव पूँजी विकास में उसके आंतरिक संतुलन को उन्नत करते हैं। ये सभी स्तंभ भारत की महाशक्ति बनने की महत्वाकांक्षाओं को भौतिक आधार भी प्रदान करते हैं।
परिणामस्वरूप, भारत उन साझेदारियों को प्राथमिकता देता है जो उसकी आत्मनिर्भरता की क्षमता को मज़बूत करती हैं। नरेंद्र मोदी सरकार के तहत, भारत ने रक्षा स्वदेशीकरण के लिए फ्रांस, रूस और इज़राइल के साथ; प्रौद्योगिकी हस्तांतरण, निवेश और कौशल विकास के लिए जापान के साथ; व्यापार और संपर्क के लिए पश्चिम एशिया, यूरोप और ऑस्ट्रेलिया के साथ; और संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ विविध क्षेत्रों में व्यापक साझेदार के रूप में प्रयासरत है।
दूसरी ओर, भारत के संरेखण के पीछे दो कारक अन्तर्निहित हैं: कश्मीर पर शत्रुतापूर्ण प्रस्तावों के विरुद्ध संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में कम से कम एक स्थायी सदस्य के वीटो की प्राप्ति तथा चीन के एक श्रेष्ठ शक्ति के रूप में उभरने का संतुलन करना। उदाहरण के लिए, शीत युद्ध के समय, सोवियत संघ के साथ भारत का गठबंधन इन अनिवार्यताओं से प्रेरित था। परन्तु, सोवियत संघ के पतन के साथ, एकध्रुवीय अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में भारत के लिए अमेरिका का महत्त्व बढ़ गया। हालांकि, फ्रांस एवं रूस भारत को आज भी वीटो सरंक्षण दे रहे है, पर उत्तर-शीत काल में भारत-अमेरिका संबंध मुख्य रूप से चीन को संतुलित करने की आवश्यकता से प्रेरित हैं।
साझेदारियों की एक विस्तृत श्रृंखला के बावजूद, भारत सामूहिक सुरक्षा समझौतों और विशिष्ट व्यापार समूहों से बच रहा है। इसके बजाय, भारत एक लचीले, मुद्दा-आधारित दृष्टिकोण को प्राथमिकता देता है। मोदी की विदेश नीति के प्रशंसक इसे बहुसंरेखण कहते हैं: एक ऐसी रणनीति जो प्रतिबद्धता में कम और भारत की भू-राजनीतिक वास्तविकताओं में अधिक निहित है।
बहुसंरेखण के लाभ और ख़तरे
मोदी का बहुसंरेखण नेहरू के गुटनिरपेक्ष जैसा नहीं है। स्वयं प्रधान मंत्री मोदी ने इस अन्तर को रेखांखित किया है: पहले ‘की नीतियों में भारत ने सभी देशों से दूरी बनाए रखी थी,’ पर ‘आज का भारत समान निकटता पर बल देता है’, – अर्थात्, भारत सब से जुड़ाव रखेगा, परंतु आपसी संबंधों को एक-दूसरे की क़ीमत पर दाव पर नहीं लगाएगा। भारत एक ही समय में रूस से कच्चे तेल का दूसरा बड़ा आयातक तथा यूक्रेन को डीज़ल आपूर्ति करने वाला सबसे बड़ा निर्यातक है एवं पश्चिम देशों के लिए रूस से संबंध नहीं तोड़ने वाला है।
बहुसंरेखण भारत को सहयोग के अपने सहभागी एवं मुद्दे की स्वतंत्रता देता है। कोई स्थाई शत्रु नहीं है, इसलिए चीन जैसे प्रतिद्वंदी से भी जुड़ाव रखा जा सकता है। भारत एक ही समय रूस के साथ मिलकर प्रक्षेपास्त्र निर्माण, जापान के साथ तीव्र गति वाली रेल, ईरान एवं इजरायल के साथ बंदरगाहों का संचालन, एवं अमेरिका को उच्च तकनीकी प्रतिभावों को भेज सकता है। बहुसंरेखण गठबंधन की दुविधाओं से राहत दे सकता है: भारत किसी तृतीय-दल के संघर्ष में धकेला नहीं जा सकता, ना ही कोई उसे अकेला छोड़ सकता है।
यद्यपि, बहुसंरेखण बहुत कारणों से एक दो-धारी तलवार है। प्रथम, इससे शत्रुता का ख़तरा पैदा हो सकता है जब कोई अन्य देश भारत के साथ अपने शत्रुता के संबंधों को उसके हितों के लिए चुनौती मान ले। भारत को इसका सामना भी करना पड़ा जब पश्चिम के देशों ने रूस के यूक्रेन पर आक्रमण की निंदा के लिए बहुत ज़्यादा राजनयिक दबाव बनाया। दूसरा, संकट में तृतीय-दल के समर्थन की कोई गारंटी नहीं होती। समर्थन भारत के साझेदार के साथ संबंधों पर नहीं, बल्कि साझेदार के संकीर्ण हितों पर निर्भर करती है। चीन के साथ सीमा गतिरोध के दौरान, संयुक्त राज्य अमेरिका ने भारत को ख़ुफ़िया और निगरानी सहायता प्रदान की, लेकिन पाकिस्तान संकट के मामले में, अमेरिकी व्यवहार कथित तौर पर कुछ निहित स्वार्थों से प्रेरित था। तीसरा, कूटनीतिक तनाव के दौरान मुद्दों को जोड़कर साझेदार लाभ उठा सकते हैं। उदाहरण के लिए, ट्रंप प्रशासन ने द्विपक्षीय व्यापार में तनाव और संकट मध्यस्थता के दावों को भारत द्वारा रूसी तेल खरीद से जोड़ दिया, जिससे अमेरिका-भारत संबंधों में तनाव पैदा हो गया।
इन अवलोकनों के आधार पर, अमेरिका-भारत संबंधों की कठिनाइयों से नई दिल्ली के लिए सबक स्पष्ट है: बहुसंरेखण आंतरिक संतुलन में मदद करता है, लेकिन यह एक विश्वसनीय बाहरी संतुलन रणनीति के रूप में कारगर नहीं हो सकता। हालाँकि, यह भारत को पूँजी और तकनीक तक पहुँच प्रदान करता है जो सीधे उसकी क्षमता को मज़बूत करती है, लेकिन यह कठिन समय में औपचारिक गठबंधन प्रतिबद्धताओं का विकल्प नहीं हो सकता।

भारत की धुरी भारत
चूंकि बहुपक्षीयता बाह्य संतुलन प्रदान नहीं कर सकती, इसलिए भारत के समक्ष दुविधा है: संयुक्त राज्य अमेरिका के सामने झुक जाए या चीन के साथ संबंध सुधारने का प्रयास करे। फ़िलहाल, भारत ने दूसरा विकल्प चुना है। रूसी तेल आयात रोकने से ऊर्जा सुरक्षा पर ख़तरा मंडरा सकता है। इसी तरह, पाकिस्तान के साथ युद्धविराम के लिए राष्ट्रपति ट्रंप को श्रेय देना उपमहाद्वीप में बाह्य हस्तक्षेप को नकारने के भारत के मूल सिद्धांत के विपरीत है। जहाँ, भारत की स्वदेशी वायु रक्षा प्रणाली और ब्रह्मोस प्रक्षेपास्त्रों ने ऑपरेशन सिंदूर में अपनी क्षमता सिद्ध की, वहीं इस संकट के समय अमेरिकी असंवेदनशीलता ने जेट इंजन जैसी प्रभावशाली तकनीकों के लिए वाशिंगटन पर निर्भरता के जोखिम को उजागर कर दिया। ये घटनाएँ संकट के समय आत्मनिर्भरता के महत्त्व को रेखांकित करती हैं।
दूसरी ओर, दुर्लभ तत्वों और उर्वरकों पर बीजिंग के निर्यात नियंत्रण और पाकिस्तान को उसका समर्थन, समान चुनौतियाँ पेश करते हैं। परन्तु, सीमा पर सैन्य शिथिलता के बाद, आर्थिक नुकसानों से बचने के लिए, नई दिल्ली के लिए चीन को समायोजित करना शायद ज़्यादा विवेकपूर्ण है। अंततः, आंतरिक संतुलन की चाहत ने ही भारत को एक प्रतिद्वंद्वी को समायोजित करने और एक रणनीतिक साझेदार से टक्कर लेने के लिए प्रेरित किया है।
इन अवलोकनों के आधार पर, अमेरिका-भारत संबंधों की कठिनाइयों से नई दिल्ली के लिए सबक स्पष्ट है: बहुसंरेखण आंतरिक संतुलन में मदद करता है, लेकिन यह एक विश्वसनीय बाहरी संतुलन रणनीति के रूप में कारगर नहीं हो सकता।
भारत की आंतरिक संतुलन की नई पहल प्रधानमंत्री मोदी के हालिया स्वतंत्रता दिवस संबोधन में स्पष्ट दिख रहा है। स्वतंत्रता सेनानियों को याद करते हुए, उन्होंने युवाओं से “समृद्ध भारत के मंत्र” को अपनाने का आग्रह किया। उन्होंने कहा कि आत्मनिर्भरता उनके विकसित भारत 2047 दृष्टि का आधार है — जो अति-निर्भरता से बचने, महत्त्वपूर्ण खनिजों की सुरक्षा, जेट इंजन और वायु रक्षा कवच विकसित करने, समुद्रीय गहराई में अन्वेषण को आगे बढ़ाने और घरेलू सुधारों में तीव्रता लाने पर केंद्रित है। इस प्रकार, निकट भविष्य में आंतरिक संतुलन की चिंताएँ भारतीय विदेश नीति का प्राथमिक चालक बनने की अपेक्षा है।
निष्कर्ष
भारत की वर्तमान विदेश नीति बाह्य संतुलन की सीमाओं और आंतरिक शक्ति विकसित करने की आवश्यकता को समझने से परिभाषित होती है। बहु-संरेखण पूँजी, प्रौद्योगिकी और कूटनीतिक स्थान हासिल करने में मूल्यवान साबित हुआ है, परंतु संकट के समय रणनीतिक साझेदारों से विश्वसनीय समर्थन के स्रोत के रूप में खरा नहीं उतरा है। अमेरिका-भारत संबंधों में गिरावट बहु-संरेखण के विरोधाभास को दर्शाती है। ऐसे संदर्भ में, नई दिल्ली संकेत दे रही है कि भारत भविष्य में “विश्वसनीय साझेदारों” के चुनाव के बजाय यह सुनिश्चित करेगा कि कोई भी साझेदार अनिवार्य न हो जाए।
भारत संयुक्त राज्य अमेरिका, यूरोप, जापान, रूस और यहाँ तक कि चीन के साथ काम करना जारी रखेगा जहाँ हित परस्पर-मिलते हो जो मुद्दा-आधारित शर्तों पर भारत की आंतरिक क्षमता को मज़बूत करते हैं। भारतीय विदेश नीति की सफलता अंततः गठबंधनों या प्रतिद्वंदिताओं पर नहीं, बल्कि, इस बात पर निर्भर करेगी कि क्या आंतरिक संतुलन भारत की महाशक्ति वाली आकांक्षाओं के लिए भौतिक आधार प्रदान करेगी या नहीं।
This article is a translation. Click here to read the original in English.
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