modi trump

दक्षिण एशिया में अमेरिका का पसंदीदा साथी कौन है, यह संदेह अमेरिकी सरकार ने काफी हद तक पिछले हफ्ते दूर किया। वाशिंगटन में आधारित एक थिंक टैंक के समक्ष एक भाषण में अमेरिका के विदेश मंत्री रेक्स टिलरसन ने अमेरिका और भारत की साझेदारी के महत्व की बात की। विशेष रूप से, टिलरसन ने कहा कि राष्ट्रपति ट्रम्प और प्रधान मंत्री मोदी एक महत्वाकांक्षी साझेदारी का निर्माण करने के लिए अधिक प्रतिबद्ध हैं। टिलर्सन के तीन दिवसीय भारत के पहले दौरे के साथ ही अमेरिका-भारत भागीदारी के प्रभाव के बारे में दो प्रमुख प्रश्न उभरकर सामने आ रहे हैं। पहला, क्या वास्तव में अमेरिका और भारत  के बीच सच में गहरी दोस्ती है ? और दूसरा, भारत और अमेरिका की साझेदारी का दक्षिण एशिया में क्षेत्रीय सुरक्षा और शक्ति संतुलन पर क्या प्रभाव पढ़ेगा?

महत्वपूर्ण साझेदारी ?

अपने भाषण में, टिलरसन ने अमेरिका और भारत के बीच बढ़ते सामरिक अभिसरण का उल्लेख किया  लेकिन क्या दोनों देशों के बीच एक महत्वपूर्ण साझेदारी है? क्या ट्रम्प सरकार भारत के साथ अमेरिका की मित्रता, जो अमेरिका-भारत परमाणु समझौते के बाद सामने आई, को बनाए रखेगी?

अमेरिकी रक्षा मंत्री जिम मैटिस की भारत यात्रा और टिलरसन के भाषण के बाद हो सकता है अपेक्षाएँ अधिक हों लेकिन ट्रम्प के शासकीय व्यवहार से पता चलता है कि इस समय अमेरिका की विदेश नीति में कोई निश्चितता नहीं है, चाहे यह निति भारत के साथ ही क्यों न हो। ईरान सौदे,  इस्लामी राज्य (आईएस), उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन (नाटो) और रूस जैसे मुद्दों पर ट्रम्प अलग-अलग विचार रखते हैं। उदाहरण के लिए, ट्रम्प ने एक बार कहा था कि अमेरिका को ईरान सौदे के निर्णय के साथ जीना होगा।  एक साल बाद, ट्रम्प ने सार्वजनिक रूप से इस सौदे को अस्वीकार कर दिया, एक ऐसा कदम था जिसका ईरान में भारत के हितों पर नकारात्मक परिणाम हो सकता था। इसी तरह, ट्रम्प ने २०१६ में नाटो को बेकार कहा था, लेकिन बाद में वह अपनी बात से पीछे हट गए और कहा कि यह सैन्य गठबंधन उनके लिए बहुत महत्वपूर्ण है। शासन के दौरान इन विरोधाभासों को देखते हुए भारत और अमेरिका के बीच अच्छी साझेदारी की स्थिरता पर कम से कम ट्रम्प संदेह करना तो बनता है।

दूसरी तरफ, जरूरी नहीं कि ट्रम्प की असंगतियों का मतलब यह है कि भारत और अमेरिका के रिश्ते अस्पष्ट दिशा में जा रहे हैं। पिछले कुछ वर्षों में, भारत को डेमोक्रेटिक और रिपब्लिकन राष्ट्रपतियों के सहयोग के साथ-साथ यू.एस. कांग्रेस का भी द्विदलीय समर्थन मिला है। भारत के परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह में शामिल होने के लिए संयुक्त राज्य की सहायता से ले कर २००८ के बाद से १५ अरब डॉलर के रक्षा अनुबंध तक, ऐसा लगता है कि भारत उन कुछ मुद्दों में से एक है जिस पर दोनों प्रमुख अमेरिकी राजनीतिक दलों की सहमति है। फिर भी, ट्रम्प व्हाइट हाउस की ओर से आने वाली विदेश नीति की अभूतपूर्व अनिश्चितता को देखते हुए, भारत को इस तरह के विचारों पर ध्यान देना चाहिए।

संभवत: इस साझेदारी में दूसरी रुकावट अमेरिका-भारत संबंधों का कारोबारी स्वभाव है। अमेरिका के लिए, भारत के साझेदारी का उद्देश्य चीन को रोकना है। भारत-अमेरिका साझेदारी साझा, लोकतांत्रिक मूल्यों पर आधारित है, पर चीन से बढ़ते  खतरे के बिना शायद यह रिश्ते प्रमुख नहीं होता। अमेरिकी विदेश नीति लंबी अवधि के रणनीतिक हितों  पर आधारित है और इस बात को भारत को समझ लेना चाहिए। टिलरसन ने भारत-अमेरिका संबंधों के अंतर्निहित उद्देश्यों का संकेत दिया जब उन्होंने कहा कि अमेरिका को भारत के साथ सहयोग करने की जरूरत है ताकि वह भारत-प्रशांत क्षेत्र में शांति, स्थिरता और बढ़ती समृद्धि सुनिश्चित कर सकें और यह अशांति, संघर्ष और हिंसक अर्थशास्त्र का क्षेत्र न बन सके। यह चीन के निवेश की एक स्पष्ट आलोचना है।

अभी जब भारत चीन के संबंध अच्छे नहीं हैं, पर अगर दोनों देश अपने अपने मतभेदों को दूर कर लेते हैं तो अमेरिका और भारत के बीच सामरिक साझेदारी शायद प्रमुख नहीं रह पाए। महत्वपूर्ण बात यह है कि ब्रिक्स फोरम में दोनों देशों की  बातचीत और शंघाई सहयोग संगठन में भारत की पूर्ण सदस्यता को देखते हुए भारत-चीन संबंधों में एक सकारात्मक बदलाव असंभव नहीं है।

बिगड़ती क्षेत्रीय गतिशीलता

ट्रम्प की विसंगतियों के अलावा, भारत-अमेरिका साझेदारी का दक्षिण एशिया की क्षेत्रीय गतिशीलता पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ेगा। कई दशकों तक एक-ध्रुवीय प्रणाली में रहने के बाद, शीत युद्ध के अंत के से अंतर्राष्ट्रीय समुदाय तेजी से बहु-ध्रुवीय हो रहा है। इसीलिए, भारत को सारी गेंद अमेरिका के पाले नहीं डालनीं चाहिए। भारत की ओर अमेरिका के स्पष्ट रूप से झुकाव ने पहले ही बीजिंग और इस्लामाबाद  के कान खड़े कर दिए हैं और जैसे जैसे भारत और अमेरिका के बीच साझेदारी बढ़ेगी यह डर भी बढ़ेगा। यदि बातचीत, पारदर्शिता और विश्वास-निर्माण से इस डर को नियंत्रित न किया गया, तो अपने दो सबसे बड़े पड़ोसियों के साथ भारत के संबंध और भी बिगड़ सकते हैं और पारंपरिक और परमाणु हथियारों की दौड़ में तेजी आ सकती है। इस प्रवृत्ति के कुछ संकेत पहले से ही  हैं। उदाहरण के लिए, सितंबर में, भारतीय सेना के चीफ बिपीन रावत ने चेतावनी दी थी कि भारत को चीन और पाकिस्तान के साथ दो मोर्चों पर युद्ध की संभावना के लिए तैयार रहना चाहिए।

यह चिंताएं काफी हद तक परंपरागत और परमाणु युद्ध ढाँचों पर आधारित हैं। भले ही दक्षिण एशिया में भविष्य का संघर्ष युद्ध की पांचवीं पीढ़ी की अवधारणा के साथ संरेखित हो, जिसमें पारंपरिक हमलों के विरोध में डिजिटल नेटवर्क और गैर-राज्य अभिनेता बड़ी भूमिका निभाएंगे, लेकिन चीन और पाकिस्तान के साथ खराब संबंध होने की वजह से भारत की स्थिति अभी भी कमजोर है। इस दृष्टिकोण से, अमेरिका से दोस्ती के लिए चीन को पराया करना आने वाले वर्षों में शायद भारत के लिए सबसे समझदारी भरा निर्णय साबित न हो।

इसी तरह, भारत को अमेरिका के साथ एक मजबूत साझेदारी के लिए टिलरसन की यात्रा के अवसर का उपयोग करना चाहिए, लेकिन साथ ही इस रिश्ते की राजनीतिक और भू-राजनीतिक बाधाओं के बारे में भी सतर्क रहना चाहिए। अमेरिकी मंत्री ने भारत-अमेरिका साझेदारी को एक बड़ा परिवर्तन बताया है जिसका दूरगामी प्रभाव अगले १०० वर्षों तक होगा लेकिन विदेश नीति और घरेलू विकास लक्ष्यों  की प्राप्ति के लिए अच्छा होगा कि भारत ट्रम्प प्रशासन की अनिश्चितता एवं इस क्षेत्र में स्थिरता के लिए भारत की दीर्घकालिक आवश्यकता दोनों को ध्यान में रखे।

Editor’s note: To read this piece in English, please click here.

***

Image 1: The White House via Flickr

Image 2: U.S. Department of State via Flickr

Share this:  

Related articles

<strong>اڈانی گروپ اور بھارت کی خارجہ پالیسی</strong> Hindi & Urdu

اڈانی گروپ اور بھارت کی خارجہ پالیسی

ہنڈن برگ ریسرچ نے جنوری۲۰۲۳ میں ایک رپورٹ جاری کی…

بھارت کی داخلی سیاست میں چین کا کردار Hindi & Urdu

بھارت کی داخلی سیاست میں چین کا کردار

  ڈوکلام بحران، جو کہ ۲۰۱۷ میں پیش آیا، کے…

<strong>بحر ہند کے خطے میں بھارتی عزائم</strong> Hindi & Urdu

بحر ہند کے خطے میں بھارتی عزائم

گزشتہ دو دہائیوں کے دوران، چین بحرِ ہند کے خطے…