Rohingya line

** इस श्रृंखला का पहले भाग यहां पढ़ें। **

भारत की शरणार्थी नीतियों की जांच तब शुरू हुई जब सरकार ने ४०००० रोहिंग्या को निर्वासित करने का निर्णय लिया, जो गृह राज्य मंत्री किरेन रिजिजू के शब्दों में “अवैध आप्रवासी” है। इस संख्या में १६००० वे रोहिंग्या भी शामिल हैं जो संयुक्त राष्ट्र द्वारा शरणार्थियों के रूप में पंजीकृत हैं– परंतु रिजिजू के लिए इसका कोई मतलब नहीं है क्योंकि उनके अनुसार “सभी रोहिंग्या अवैध प्रवासि हैं।”

साउथ एशियन वॉइसेस के एक हालिया लेख में, शिवानी सिंह का तर्क है कि रोहिंग्या शरणार्थियों के प्रति भारत की नीति भेदभावपूर्ण है और कई मूलभूत अंतरराष्ट्रीय मानदंडों के विपरीत है। लेकिन राष्ट्रीय सुरक्षा और न्याय व्यवस्था भी भारत सरकार के लिए चिंता के विषय हैं।  इन चिंताओं ने अंतर्राष्ट्रीय संधियों के प्रति भारत की प्रतिक्रिया को निर्देशित किया है, और शरणार्थी नीतियों के लिए सतर्क दृष्टिकोण अपनाने के लिए बाध्य किया है। इस मुद्दे के मानवीय पहलू का ध्यान रखना और उस पर आवाज़ उठाना सही है लेकिन यह इस तरह किया जाना चाहिए जो देश के सुरक्षा हितों के साथ सामंजस्यपूर्ण हो। इसी लिए भारत की शरणार्थी नीति विवेकाधीन है, भेदभावपूर्ण नहीं।

न्याय व्यवस्था में विवेकाधीन शरणार्थी नीति का समर्थन

भारत १९५१ यूएन रेफ्यूजी कन्वेंशन और उसके १९६८ प्रोटोकॉल का हस्ताक्षर-कर्ता नहीं है।  इसका मतलब यह है कि शरणार्थियों को कन्वेंशन में परिभाषित अधिकार और संरक्षण प्रदान करना भारत का न्यायी दायित्व नहीं है।  पर परंपरागत रूप से  भारत ने इन सम्मेलनों में उल्लिखित “नॉन-रिफॉलमेंट” के उस अंतर्राष्ट्रीय सिद्धांत का पालन किया है जो यह बाध्य करता है कि कोई भी देश शरणार्थियों को उस स्थान पर वापस नहीं भेज सकता जहां उनका जीवन संकट में पढ़ जाए।  इसी तरह भारत ने अपनी घरेलू न्याय व्यवस्था के तहत अलग अलग मामलों में नॉन-रिफॉलमेंट के सिद्धांत को लागू किया है। इन तथ्यों से यह समझने में मदद मिलती है कि क्यों  शरणार्थियों की संख्या  के हिसाब से भारत २०१६ में २८ वें स्थान पर था।  संयुक्त राष्ट्र महासचिव के एक प्रवक्ता ने हाल ही में नॉन-रिफॉलमेंट सिद्धांत का हवाला देते हुए रोहिंग्या को वापस भेजने के भारत के निर्णय की आलोचना की।

परंतु यह ध्यान रखना जरूरी है कि १९५१ यूएन रेफ्यूजी कन्वेंशन का अनुच्छेद ३२ नॉन-रिफॉलमेंट सिद्धांत के अपवाद के लिए दो आधार प्रदान करता है: राष्ट्रीय सुरक्षा और सार्वजनिक व्यवस्था। आनंद भवानी (ए) गीताननडो, आनंद आश्रम, पांडिचेरी बनाम भारत के केस में १९९१ के निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि अगर कुछ लोगों की उपस्थिति राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए आशंका बन जाए तो सुनवाई के बिना  उनके निर्वासन का आदेश प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत का उल्लंघन नहीं माना जाएगा। इसके अलावा, लुइस डी रेड्स बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (१९९१ ) केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था विदेशियों को निर्वासित करने के मामले में सरकार के अधिकार बिल्कुल स्वतंत्र हैं।

सुप्रीम कोर्ट सरकार के निर्वासन निर्णय के  विरुद्ध भारत में रह रहे दो रोहिंगया शरणार्थियों द्वारा लाई गई जनहित याचिका की सुनवाई कर रहा है। उसका परिणाम इस बात पर टिका हुए है कि सरकार किस तरह अपने निर्वासन आदेश को राष्ट्रीय सुरक्षा या न्याय व्यवस्था से संबंधित अपवादों पर आधारित करती है। इस प्रकार, भारत में चल रहे न्यायी वाद-विवाद का ध्यानपूर्वक पाठ यह दर्शाता  है कि भारत नॉन-रिफ्लेमेंट के सिद्धांत को हमेशा लागू करने के लिए किसी अंतरराष्ट्रीय दायित्व से बाध्य नहीं है और निर्वासन के लिए उसके अधिकार घरेलू न्याय व्यवस्था द्वारा समर्थित है।

सुरक्षा चिंता भारत की नीति का निर्देश

रोहिंग्या के बारे में सरकार की सुरक्षा संबंधी चिंताओं का कारण भारतीय राज्य जम्मू और कश्मीर में अंतरराष्ट्रीय सीमा के पास  जम्मू और सांबा जिले में अनुमानित १०००० की रोहिंग्या बस्ती हो सकती है। सरकार द्वारा जारी एक हालिया शपथ-पत्र के अनुसार  रोहिंग्या आईएसआई और दाएश के भयावह योजना का हिस्सा नज़र आते हैं और रोहिंग्या की कट्टरता राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए हानिकारक है। इंटेलिजेंस की जानकारी भी यही बताती है कि अवैध  रोहिंग्या प्रवासियों  का संबंध आतंक संगठनों के साथ हो सकता है, जबकि अन्य म्यांमार से आए अवैध आप्रवासियों के एक संगठित गुट का हिस्सा हैं। विशेष रूप से आतंकवादी समूह की भागीदारी की हालिया रिपोर्ट को देखते हुए , रखाइन की स्तिथी, जो कि  म्यांमार के रोहिंग्या  संकट  का केंद्र है , भारत के नाज़ुक पूर्वोत्तर क्षेत्र में सुरक्षा हितों को नुकसान पहुंचा सकती है।

अन्य प्रासंगिक सुरक्षा समस्याओं में खासकर भारत में बौद्धों के विरुद्ध सांप्रदायिक हिंसा का खतरा , नकली नागरिकता पत्र, मानव तस्करी और सामान्य जनसांख्यिकीय परिवर्तन शामिल हैं। जनसांख्यिकीय परिवर्तन विशेष रूप से जम्मू और कश्मीर और उत्तर पूर्व भारत में संवेदनशील विवाद है। भारत में ४०००० रोहिंग्या शरणार्थियों की तुलनात्मक रूप से यह छोटी संख्या जल्द ही बड़ी संख्या में बदल सकती है क्योंकि पिछले कुछ दिनों में ३००००० से अधिक रोहिंग्या म्यांमार से बांग्लादेश भाग कर आए हैं।

रिजिजू का बयान रोहिंग्या के लिए एक संकेत हैं कि अभी वह भारत में  स्वागत नहीं हैं। यह बयान शायद इस उम्मीद में दिया गया है कि इससे संभावित रूप से रोहिंग्या का प्रवासन रोका जा सके,  जो भारत और अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को विस्थापन संकट के लिए अस्थाई उपायों और स्थायी समाधान की पहचान करने का समय देगा।  इस बीच, सरकार ने राज्य सरकारों को अपने क्षेत्रों में रोहिंग्या की पहचान करने का निर्देश दिया है, पर तत्काल निर्वासन करने से मना किया है।

इन राष्ट्रीय सुरक्षा और न्याय व्यवस्था संबंधी चिंताओं को देखते हुए ,भारत की विवेकाधीन शरणार्थी नीति उचित है।

सिफ़ारिशें

रोहिंग्या के प्रति भारत की अंतिम नीति  की रूपरेखा के बावजूद, एक प्रमुख क्षेत्रीय खिलाड़ी के रूप में, भारत को बांग्लादेश और म्यांमार के साथ इस स्थिति का समाधान ढूंढने की कोशिश करनी चाहिए।

दूसरा, भारत-बांग्लादेश-म्यांमार ट्राई-जंक्शन क्षेत्र के अलावा , भारत-बांग्लादेश और भारत-म्यांमार अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं  पर सक्रिय गश्त से रोहिंग्या शरणार्थियों या आप्रवासियों की अनियंत्रित बाढ़ कम करने में मदद मिल सकती है।

शरणार्थी परिस्थिति के घरेलू समाधान  ढूंढने के प्रयास के अलावा, भारत को बांग्लादेश को वित्तीय और मानवीय सहायता प्रदान करना जारी रखना चाहिए, क्योंकि बांग्लादेश  शरणार्थी संकट की  मार झेल रहा है।

अंतिम सिफारिश जिसको प्राप्त करना सबसे मुश्किल है वह यह है कि वैश्विक समुदाय को म्यांमार के राष्ट्र-निर्माण प्रयास को स्थिर करने में मदद करनी चाहिए और  म्यांमार राज्य को अपनी नस्ल-आधारित बर्मी बुनियाद से अलग करना चाहिए। भारत से जो हो सके वह करना चाहिए लेकिन इससे जुड़ी चुनौतियों और सीमाओं को भी ध्यान में रखना चाहिए। भारत को यह कुछ इस तरह से करना होगा जिससे घरेलू सुरक्षा को बचाया और आगे बढ़ाया जा सके।

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Image 1: European Commission DG ECHO via Flickr (cropped) 

Image 2: Steve Gumaer via Flickr

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