
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के नेतृत्व में, वाशिंगटन अपने सहयोगियों और विरोधियों दोनों के विरुद्ध अप्रत्याशित बदलाव से अपनी आर्थिक ताक़त को थोप रहा है। सत्ता में दोबारा आने के बाद से ट्रम्प ने वैश्विक अर्थव्यवस्था की रूपरेखा को पुनः निर्धारित करने के उद्देश्य से आर्थिक, व्यापार और प्रौद्योगिकी नीतियों का एक आक्रामक मिश्रण लागू किया है – जिससे संभवतः मुद्रा युद्ध छिड़ा है। इस रणनीति का एक उल्लेखनीय परिणाम अप्रैल में अमेरिकी बॉन्ड प्रतिफल में अचानक वृद्धि थी, जो एक रणनीतिक साझेदार जापान और एक विरोधी देश चीन द्वारा अमेरिकी खज़ाने को जानबूझकर बेचने के उपरांत हुआ था, जो ट्रम्प की दर/प्रशुल्क(Tariffs) अस्थिरता के विरुद्ध एक अंतर्निहित चेतावनी का ऐलान और डॉलर की वैश्विक रिज़र्व स्थिति के लिए ख़तरे का संकेत है।
बॉन्ड बाज़ारों के जवाब में, ट्रम्प ने अपने दृष्टिकोण में नरमी बरतते हुए पारस्परिक दर/प्रशुल्क (Tariffs) व्यवस्था को 90 दिनों के लिए स्थगित कर दिया। परन्तु, ट्रम्प प्रशासन ने वैश्विक वित्तीय नेटवर्क के जबरन पुनर्गठन के अपने प्रयत्नों को अभी तक नहीं रोका है। वह विभिन्न उद्देश्यों के लिए डॉलर का हथियारीकरण जारी रखे हुए है, जिससे वित्तीय अस्थिरता पैदा हो रही है, जो विकासशील देशों को बढ़ती वैश्विक नीतिगत अनिश्चितता के बीच मुद्रा संबंधी झटकों, पूँजी पलायन और बाह्य निर्बलताओं का सामना करने के लिए करते है|
इस संदर्भ में, अमेरिकी मुद्रा नीति और भारत जैसी उभरती और विकासशील अर्थव्यवस्थाओं पर इसके प्रभावों को समझना आवश्यक है। नई दिल्ली के लिए, ट्रंप के क़दम एक चुनौती और अवसर दोनों प्रदान करते हैं, हालाँकि, भारतीय नीति निर्माताओं को वैश्विक आर्थिक व्यवस्था को पुनः स्थापित करने के ट्रम्प के प्रयासों से पैदा हुए अवसरों का लाभ उठाने हेतु चुस्त और दूरदर्शी होना पड़ेगा|
वह विभिन्न उद्देश्यों के लिए डॉलर का हथियारीकरण जारी रखे हुए है, जिससे वित्तीय अस्थिरता पैदा हो रही है, जो विकासशील देशों को बढ़ती वैश्विक नीतिगत अनिश्चितता के बीच मुद्रा संबंधी झटकों, पूँजी पलायन और बाह्य निर्बलताओं का सामना करने के लिए करते है|
जानबूझकर किया गया अवमूल्यन
जैसे-जैसे ट्रम्प का दूसरा कार्यकाल आकार ले रहा है, डॉलर का अवमूल्यन अमेरिकी आर्थिक नीति के एक प्रमुख स्तंभ के रूप में पुनः उजागर हो रहा है—जो राष्ट्रपति के व्यापार प्रतिस्पर्धा, औद्योगिक पुनरुद्धार और ऋण में कमी के एजेंडे से मज़बूती से जुड़ा हुआ है। अमेरिकी सार्वजनिक ऋण 36 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर से अधिक हो जाने तथा फेडरल रिज़र्व की ऊँची दरों के कारण ब्याज के उन्नतोदर में वृद्धि के साथ, ट्रम्प मज़बूत डॉलर को ताक़त के संकेत के रूप में नहीं, बल्कि एक संरचनात्मक बाधा के रूप में देखते हैं—जिससे अमेरिकी विनिर्माण के लिए प्रतिस्पर्धा करना कठिन हो जाता है। जैसा कि ट्रम्प के मुख्य आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष स्टीफन मिरान ने समझाया, “डॉलर के आरक्षित कोष की कार्यप्रणाली के कारण निरन्तर मुद्रा विकृतियों के साथ-साथ…असहनीय व्यापार घाटा हुआ है। इन व्यापार घाटों ने हमारे विनिर्माण क्षेत्र को नष्ट कर दिया है”।
अपने पहले कार्यकाल के विषयों को दोहराते हुए, ट्रम्प ने व्यापारिक साझेदारों, विशेष रूप से चीन और यूरोपीय संघ का दाहांकन “मुद्रा हेरफेर करने वाले देशों” के रूप में किया है| उदाहरण के लिए, 2019 में ट्रम्प ने ट्वीट किया था: “चीन और यूरोप मुद्रा हेरफेर का एक बड़ा खेल खेल रहे हैं और अमेरिका से प्रतिस्पर्धा करने के लिए अपनी प्रणाली में पैसा डाल रहे हैं। हमें भी उनकी बराबरी करनी चाहिए या फिर बेवकूफ़ बने रहना चाहिए”। अप्रैल 2025 में, अमेरिकी राष्ट्रपति ने सोशल मीडिया पर एक ऐसी ही पोस्ट में मुद्रा हेरफेर को ग़ैर दर/प्रशुल्क (tariffs) धोखाधड़ी की सबसे बड़ी विधि बताया है|
ट्रम्प अब कई युक्तियों का उपयोग कर, डॉलर के कथित अति-मूल्यन को बदलना चाहते हैं, जिसमें न केवल व्यापक दर/प्रशुल्क (tariffs) शामिल हैं, बल्कि 1974 के व्यापार अधिनियम की धारा 301 जैसे वैधानिक साधनों का नए सिरे से उपयोग भी सम्मिलित है। इससे उन देशों पर दर/प्रशुल्क (tariffs) या अन्य प्रतिबंध लगाने के प्रावधान हैं, जिनके बारे में अमेरिका का मानना है कि वे देश “अनुचित व्यापार प्रथाओं” पर निर्भर हैं, जिसमें कथित मुद्रा हेरफेर भी निगमित है|
ट्रम्प ने ब्याज दरें कम करने के लिए जनता का दबाव अमेरिकी फेडरल रिज़र्व पर बढ़ाकर, अमेरिकी केंद्रीय बैंक पर इन मांगों को व्यापार संबंधी उकसावे के साथ जोड़ दिया है। जनवरी में, विश्व आर्थिक मंच पर ट्रम्प ने कहा था कि “तेल की कीमतों में गिरावट के साथ, मैं ब्याज दरों में तत्काल कटौती की मांग करूँगा और उन्हें वैश्विक स्तर पर भी कम किया जाना चाहिए।” ट्रुथ सोशल पर फरवरी में एक पोस्ट में ट्रम्प ने लिखा: “ब्याज दरें कम की जानी चाहिए, जो आगामी टेरिफ़्स के अनुकूल चलेंगी!!!” अप्रैल में, उन्होंने घोषणा कि फ़ेडरल रिज़र्व चेयरमैन जेरोम पॉवेल हमेशा “बहुत देर और ग़लत करते हैं” और उनकी बर्खास्तगी की “तीव्रता ज़रुरत से अधिक” है। “जितनी जल्दी हो बेहतर है” इसके अतिरिक्त, अमेरिकी प्रशासन ने 1985 के प्लाजा समझौते की तर्ज पर मुद्रा को दुर्बल करने हेतु डॉलर बेचकर प्रत्यक्ष मुद्रा बाज़ार हस्तक्षेप की संभावनाएँ बढ़ाई है। लेकिन, इस दृष्टिकोण को, जिसे “मार-ए-लागो समझौता” कहा जाता है, इसका औपचारिक रूप से प्रतिध्वनित होना बाक़ी है|

इस प्रकार की वक्रपटुता अनिश्चितता बढ़ाती है, जो मौद्रिक नीति में संभावित कार्यकारी हस्तक्षेप का संकेत है। राजनीतिक शेखीबाज़ी और संस्थागत सतर्कता के बीच फँसे बाज़ार, डॉलर के उतार-चढ़ाव एवं अस्थिर पूँजी प्रवाह को झेल रहे हैं। विकासशील देशों के लिए, ऐसे क़दम गंभीर परिणामों वाले होंगे: पूँजी पलायन, मुद्रा अस्थिरता, बढ़ती ऋण सेवा लागत एवं अमेरिकी अस्थिरता के प्रति व्यवस्थागत जोखिम।राष्ट्रपति ट्रम्प के वैधानिक-आर्थिक राष्ट्रवाद की छाया अब परस्पर दुर्बल होती वैश्विक वित्तीय संरचना पर व्यापकता से पड़ रही है|
उभरती अर्थव्यवस्थाओं के लिए परिणाम
चूंकि वाशिंगटन दर/प्रशुल्क (tariffs) फेडरल रिज़र्व पर दबाव और मुद्रा हस्तक्षेप की धमकियों के माध्यम से डॉलर को तीव्र गति से हथियार बना रहा है, विकासशील और उभरती अर्थव्यवस्थाओं के समक्ष जोखिमों का उत्थान हो रहा है। व्यापारिक शैली के अमेरिका-प्रथम दृष्टिकोण के तहत ट्रम्प की अवमूल्यन रणनीति अमेरिकी निर्यात को बढ़ावा दे सकती है, लेकिन इससे वैश्विक व्यापार, पूँजी प्रवाह और ऋण बाज़ारों में अस्थिरता का खतरा अन्तर्निहित है| मिस्र, घाना और श्रीलंका जैसे उच्च बाह्य ऋण या डॉलर-आधारित व्यापार वाले देशों में, निवेशकों की बदलती धारणा और विकसित होती वित्तीय लागत के बीच, उनकी समष्टि आर्थिक कमज़ोरियाँ ओर भी बदतर हो सकती हैं। प्रेषण-निर्भर देशों को भी कम अंतर्वाह का सामना करना पड़ रहा है क्योंकि कमज़ोर डॉलर मूल्यांकन वास्तविक घरेलू आय में कटौती ला रहा है। यह अस्थिरता मुद्रास्फीति की अपेक्षाओं को विकसित करती है, मुद्रा असंतुलन को बढ़ाती और भुगतान संतुलन की स्थिति पर दबाव डालती है। दुनिया भर के पर्यवेक्षक, विशेषकर अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के, पहले से ही ऋण पुनर्गठन की मांग कर रहे हैं| बढ़ती अनिश्चितता को देखते हुए, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष का भी विचार है कि ऐसे प्रयास “आवश्यक” हो सकते हैं।
भारत को भी इस उथल-पुथल का सामना करना होगा, जिसका निर्यात, पूँजी बाज़ार एवं संरक्षित प्रबंधन पर प्रभाव पड़ेगा। यदि डॉलर का प्रभुत्व कम पूर्वानुमानित हो जाएगा, तो कई अर्थव्यवस्था प्रणालियाँ एकपक्षीय अमेरिकी नीतिगत झटकों के जोखिम को कम करने और वित्तीय स्थिरता की रक्षा हेतु डी-डॉलरीकरण के लिए अपने प्रयास तीव्र कर पाने में सफल रहेंगी| वर्ष 2025 के अंत तक विश्व की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने के लिए तत्पर और उभरते बाज़ारों में पहले से ही एक प्रमुख खिलाड़ी के रूप में भारत स्वयं को उजागर और संभावित रूप से सशक्त पाता है। कमज़ोर डॉलर से भारत के आयात विपत्र में कमी आ सकती है—विशेषकर कच्चे तेल के दामों में (क्योंकि इसकी क़ीमत डॉलर में होती है)—जिससे मुद्रास्फीति पर अंकुश लगाने और चालू खाता शेष में सुधार करने में सहयोग प्राप्त होता है| इससे भारत की 717 अरब अमेरिकी डॉलर की बाहरी देनदारियों की अदायगी की लागत भी कम हो सकती है और निगमों को अनुवाद लाभ मिल सकता है। इसके अलावा, भारत के औद्योगिक विकास हेतु प्रभावशाली उच्च-मूल्य वाले आयात, जैसे सेमीकंडक्टर उपकरण, मशीनरी और इलेक्ट्रॉनिक्स, अधिक किफ़ायती दामों में ख़रीदे जा सकते हैं|
राष्ट्रपति ट्रम्प के वैधानिक-आर्थिक राष्ट्रवाद की छाया अब परस्पर दुर्बल होती वैश्विक वित्तीय संरचना पर व्यापकता से पड़ रही है|
फिर भी, चुनौतियाँ भी उतनी ही गंभीर हैं—और केवल दर/प्रशुल्क (tariffs) बाधाओं तक सीमित नहीं हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका ख़ासकर सूचना प्रौद्योगिकी (आईटी) और आईटी-सक्षम सेवाओं, दवाइयों और वस्त्रों के लिए भारत का सबसे बड़ा निर्यात बाज़ार है| ऐसे में, डॉलर के अवमूल्यन से सेवा अनुबंधों पर नए सिरे से वार्तालाप, लाभ और राजस्व में कमी जैसी समस्याएँ पैदा हो सकती हैं। इसका भारत के विनिर्माण क्षेत्र को बढ़ाने और अपने उत्पादों को अप्रतिस्पर्धी बनाकर वैश्विक मूल्य श्रृंखलाओं में शामिल होने की व्यापक योजनाओं पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है। हाल ही में, प्रमुख भारतीय आईटी व्यवसायिक प्रतिष्ठानों ने अपनी आय रिपोर्ट में विदेशी मुद्रा में उतार-चढ़ाव को एक व्यावसायिक जोखिम के रूप में चिह्नित किया है। इसके अतिरिक्त, विशेष रूप से खाड़ी देशों और संयुक्त राज्य अमेरिका से आने वाले धन-प्रेषण—जो 2024 में कुल 129 अरब अमेरिकी डॉलर से अधिक थी, इसके मूल्य में भी गिरावट आ सकती है, जिसका केरल, आंध्र प्रदेश और पंजाब जैसे भारतीय राज्यों के घरेलू खपत पर विषमतापूर्वक प्रभाव पड़ सकता है।
इन बढ़ते दबावों में, भारतीय रिज़र्व बैंक (आरबीआई) के डॉलर-आधारित विदेशी मुद्रा भंडार को मूल्यांकन में कमी का सामना करना पड़ रहा है। उभरते बाज़ारों से अमेरिका द्वारा प्रेरित पूँजी पलायन भारतीय बॉन्ड प्रतिफल को बढ़ा सकती है, बाहरी वित्तपोषण की शर्तों को कड़ा कर सकती है, और व्यवसायों के लिए पुनर्वित्त जोखिम पैदा कर सकती है। ऐसे परिदृश्य में भारत की दुर्बलताएँ डॉलर-केंद्रित वैश्विक वित्तीय प्रणाली के ख़तरों को दर्शाती है।
यह अस्थिरता वैश्विक स्तर पर डी-डॉलरीकरण पर चर्चा को भी बढ़ावा देती है। रूस, चीन, ईरान और संयुक्त अरब अमीरात जैसे देश व्यापार समझौतों को ग़ैर डॉलर मुद्राओं में स्थानांतरित कर रही हैं| यहाँ तक कि अमेरिका के सहयोगी देश भी, एकपक्षीय वित्तीय प्रतिबंधों और सीमा-पार पहुँच से व्यथित होकर, डॉलर पर अपनी निर्भरता कम करने के प्रयास कर रहे हैं। भारत के लिए, यह प्रवृत्ति एक रणनीतिक अवसर के साथ-साथ एक जटिल चुनौती भी प्रस्तुत करती है| मुद्रा विविधीकरण और क्षेत्रीय व्यापार तंत्रों को अपनाने से भारत की वित्तीय संप्रभुता बढ़ सकती है| परन्तु, डी-डॉलरीकरण की तरफ़ अधिक तीव्र गति से विद्यमान व्यापार-वित्तीय संबंध बिगड़ सकते हैं और अल्पकालिक अस्थिरता को बढ़ावा मिल सकता है, विशेषकर डी-डॉलरीकरण की मांग करने वाले देशों को दंडित करने के ट्रम्प के वादे के संदर्भ में।
भारत के विकल्प
भारत को एक सुनियोजित, दूरदर्शी रणनीति के साथ प्रतिक्रिया देनी होगी। सर्वप्रथम, भारत को विभिन्न मुद्राओं में व्यापार चालान में विविधता लानी चाहिए, विशेषकर यूरोपीय संघ, जापान और क्षेत्रीय साझेदारों के साथ सौदों में। द्वितीय, आरबीआई को अपने विदेशी मुद्रा भंडार में सोना, यूरो और अन्य स्थिर मुद्राओं का अधिक हिस्सा सम्मिलित कर मुद्रा भंडार को पुनर्संतुलित करना चाहिए। तृतीय, भारत को डॉलर पर अत्यधिक निर्भरता कम करने के लिए, विशेषकर रूस, संयुक्त अरब अमीरात और आसियान देशों के साथ, अपने रुपये व्यापार निपटान तंत्र को मज़बूती प्रदान करनी चाहिए| चतुर्थ, भारतीय नीतियों में व्यवसायों को विदेशी मुद्रा जोखिमों से अपने आप को सरंक्षित करने के लिए विनिवेश सूची में विविधता लाने हेतु प्रोत्साहित करना चाहिए। अंत में, नई दिल्ली को रुपये का अंतर्राष्ट्रीयकरण करने और मित्र देशों की अर्थव्यवस्थाओं के साथ डिजिटल भुगतान संबंध क़ायम करने हेतु यूनिफाइड पेमेंट्स इंटरफेस (यूपीआई) जैसे अपने फिनटेक बुनियादी ढांचे (वित्तीय प्रौद्योगिकी) को विस्तारित करना चाहिए। रुपये-आधारित लेन-देन के लिए कूटनीतिक प्रयास से अर्थव्यवस्था को अमेरिका-केंद्रित मुद्रा झटकों से बचाया जा सकता है, जिसका उदाहरण हाल ही में भारत-यूएई व्यापार निस्तारण है।
वित्तीय बहुध्रुवीयता के इस उभरते युग में, डॉलर का दबदबा बना रह सकता है, परंतु ऐसा करना चुनौती मुक्त नहीं है| भारत को इस अवसर का उपयोग न केवल अपनी अर्थव्यवस्था की रक्षा के लिए करना चाहिए, बल्कि एक अधिक लचीली और विविधितापूर्ण वैश्विक वित्तीय संरचना को आकार देने हेतु भी करना चाहिए।
This article is a translation. Click here to read the original in English.
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Image 1: The White House
Image 2: The White House via Flickr