१९५५ में औपचारिक राजनयिक संबंध स्थापित करने के बाद से, नेपाल और चीन के संबंध व्यापक रूप से मित्रतापूर्ण रहे हैं। पर इन संबंधों को बल तब मिला जब २००८ में नेपाल ने संवैधानिक राजतंत्र त्याग दिया। विशेष रूप से २०१५ के गोरखा भूकंप के बाद यह रिश्ता और पक्का हुआ। इसी बीच, भारत-नेपाल संबंधों में खटास आई जब नेपाल सरकार ने नई दिल्ली पर यह आरोप लगाया कि भारत ने २०१५ में चार महीनों तक मधेसी अगुआई से हुई नाकाबंदी का अकथित रूप से समर्थन किया (मधेसी एक जातीय समूह है जिसका भारत के साथ घनिष्ठ संबंध है)। इस नाकाबंदी के कारण नेपाल को ईंधन और अन्य आपूर्तियों की भारी कमी का सामना करना पड़ा। इस घटना से शायद यह समझने में मदद मिलती है कि क्यों काठमांडू नई दिल्ली पर अपनी दशकों से चली आ रही निर्भरता को संतुलित करने का प्रयास कर रहा है–बीजिंग से रिश्ता बढ़ा कर।
इन घटनाओं से पता चलता है कि नेपाल की विदेश नीति अब एक नए मोड़ पर पहुंच गई है। आने वाले कुछ सालों में काठमांडू क्या नीति अपनाता हैं यह दक्षिण एशिया में सत्ता के क्षेत्रीय संतुलन के लिए महत्वपूर्ण साबित होगा। या तो नेपाल भारत के साथ अपना पारंपरिक संरेखण कायम रखेगा या उसे छोड़कर चीन के साथ अपने संबंध बढ़ाएगा। परंतु उससे अधिक विवेकपूर्ण रणनीति यह होगा कि नेपाल भारत और चीन के बीच सामरिक अस्पष्टता बनाए रखे और दोनों के साथ संबंधों से आर्थिक लाभ प्राप्त करे।
नेपाल-चीन संबंध: बीजिंग की रणनीतिक प्रेरणा
भारत और नेपाल के बीच बिगड़ते द्विपक्षीय संबंध बीजिंग के लिए एक रणनीतिक अवसर है। चीन ने नेपाल में रूची ली है क्योंकि नेपाल चीन के तिब्बती स्वायत्त क्षेत्र (टीएआर) की सीमा पर है, जहां बीजिंग दशकों से स्थिरता बनाए रखने के बारे में चिंतित है। १९५९ के तिब्बती विद्रोह के बाद अनुमानित २०००० तिब्बती शरणार्थि नेपाल में बस गए और चीन इन शरणार्थियों को अपनी संप्रभुता और स्थिरता के लिए हानिकारक समझता है। २००८ के काठमांडू विरोध को देखते हुए, चीन चिंतित है कि यह शरणार्थि टीएआर में चीन के दमनकारी शासन का विरोध करके अशांति पैदा कर सकते हैं जिससे अंतरराष्ट्रीय ध्यान आकर्षित हो और उसकी वैश्विक स्थिति को नुकसान पहुंचे या अन्य घरेलू जातीय समूहों में विरोध प्रेरित हो।
तिब्बत सम्बंधित चिंताओं के साथ साथ, बीजिंग इस क्षेत्र की प्रबल शक्ति नई दिल्ली के साथ नेपाली सरकार की दीर्घकालिक निकटता के कारण भी सहयोग बनाने के लिए उत्सुक हो सकता है। चीन की दृष्टि से, २०१५ की नाकाबंदी एक अवसर था; भारत पर विदेश नीति और आर्थिक विकास के लिए नेपाल की निर्भरता छुड़ाने का।
आर्थिक भागीदारी
इन रणनीतिक चिंताओं को ध्यान में रखते हुए, चीन ने नेपाल में अपनी प्रतिबद्धता का प्रदर्शन करने के लिए प्राथमिक रूप से एक तरीका अपनाया है–आर्थिक भागीदारी। भारत के बाद चीन नेपाल का दूसरा सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार है, पर भारतीय आयात के सामने अभी भी चीनी आयात बहुत कम है–भारतीय आयात ५८ प्रतिशत है जबकि चीनी आयात केवल १४ प्रतिशत। चीन नेपाल में एफडीआई के सबसे बड़े स्रोत के रूप में भी उभरा है जबकि जुलाई २०१६ से जनवरी २०१७ तक भारतीय निवेश ७६ प्रतिशत गिर गया है। इस साल मार्च तक अन्य परियोजनाओं के साथ चीनी कंपनियों ने नेपाल में पनबिजली, स्मार्ट ग्रिड और सड़क मार्गों के लिए ८.३ अरब डॉलर का भी आश्वासन दिया है।
क्षेत्रीय संयोजकता से भी चीन नेपाल पर प्रभाव डालना चाहता है। अधिकतर व्यापार के लिए नेपाल भारत के साथ अपनी दक्षिणी सीमा रेखा पर निर्भर रहा है। लेकिन चीन का महत्वपूर्ण बेल्ट और रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) इस यथास्थिति को बदल सकता है और संभावित रूप से नेपाल में एक आर्थिक पुनर्जागरण प्रेरित कर सकता है। मई में, नेपाल ने बीआरआई पर हस्ताक्षर किया, जो उसे मध्य एशिया और यूरोप के बाजारों से जोड़ सकता है।
रक्षा और सुरक्षा सहयोग
एक तरफ जहां आर्थिक सहयोग के कारण चीन और नेपाल के संबंधों में तेज़ी आ रही है वहीं तिब्बती शरणार्थि सम्बंधित सुरक्षा चिंताओं ने चीनी-नेपाली सहयोग को परभावित किया है। जैसे जुलाई में चीन ने नेपाल को उसके राष्ट्रीय सशस्त्र पुलिस बल के लिए एक प्रशिक्षण केंद्र प्रदान किया, जिसका निर्माण चीनी अनुदान सहायता से किया गया था। यह इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह पुलिस बल नेपाल-तिब्बत सीमा पर तैनात है। और यह प्रशिक्षण केंद्र शायद चीन को नेपाल के सीमा सुरक्षा संचालन और नेपाल में तिब्बती शरणार्थियों और कार्यकर्ताओं के घुसपैठ की जांच को प्रभावित करने का अवसर प्रदान करे। इसी तरह, अक्टूबर २०१६ में चीन ने नेपाल सेना के आधुनिकीकरण के लिए सहायता देने का वादा किया था।
पर नेपाल-चीन रक्षा सहयोग में महातोपूर्ण मोड़ अप्रैल २०१७ का संयुक्त सैन्य अभ्यास था, जिसे सागरमाथा मैत्री के नाम से जाना जाता है। नेपाल ने पूर्व में भारत और अमेरिका दोनों के साथ संयुक्त द्विपक्षीय सैन्य अभ्यास आयोजित किया है लेकिन यह चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) और नेपाल आर्मी (एनए ) के बीच पहला अभ्यास था। इस तरह के संयुक्त अभ्यास के अपने महत्व होते हैं क्योंकि इनसे देशों के बीच समझदारी बढती है , सैन्य बलों के बीच निजी और संस्थागत संबंध बनते हैं और राजनीतिक, आर्थिक, एवं सांस्कृतिक संबंध और शक्तिशाली बन जाते हैं।
हाल ही में भारत और चीन के बीच डोकलाम गतिरोध के दौरान चीन के उपप्रधानमंत्री वांग यांग ने विवाद के दौरान नेपाली सरकार को तटस्थता बनाए रखने के उद्देश से काठमांडू गये। ऐसा लगता है कि काठमांडू ने इस दबाव का पालन किया है और नेपाल-चीन संबंधों के बदलते रूप का यह एक और संकेत है।
चीन-नेपाल संबंधों का भविष्य
भारत-नेपाल द्विपक्षीय संबंधों में आई कमी को देखते हुए, नेपाल में चीन के सामरिक लक्ष्यों का विकास होता रहेगा। २०१५ की नाकाबंदी और नेपाल की घरेलू राजनीति में भारतीय हस्तक्षेप के कारण चीन नेपाल के लिए एक आकर्षक विकल्प है।
फिर भी, लंबे समय से चले आ रहे भारत-नेपाल संबंधों को नष्ट करना चीन के लिए मुश्किल हो सकता है। भारत दक्षिण एशिया को अपने ज्ञानक्षेत्र मानता है और नेपाल के प्रति बहुत रक्षात्मक है क्योंकि २००६ में नेपाली सरकार और माओवादी विद्रोहियों के बीच नई दिल्ली ने शांति समझौता कराया था। इस संदर्भ में, नेपाल में अपना प्रभाव बढ़ाना चीन के लिए चुनौतीपूर्ण होगा क्योंकि भारतीय सामरिक समुदाय नेपाल के विश्वास को वापस जीतने का प्रयास करेगा। पिछले कुछ महीनों में नई दिल्ली ने काठमांडू के साथ अपने परंपरागत रिश्ते को पुनर्जीवित करने की प्रतिबद्धता का प्रदर्शन किया है। नेपाली प्रधान मंत्री शेर बहादुर देउबा का अगस्त में नई दिल्ली दौरा, भारतीय प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की देउबा के साथ अनिर्धारित बैठक और दोनों देशों के बीच विकास के संबंध में कई द्विपक्षीय समझौतों पर हस्ताक्षर इसके कुछ उदाहरण हैं।
चीन की नेपाल नीति तिब्बती स्थिरता से संबंधित घरेलू सुरक्षा चिंताओं और भारत को नियंत्रित करने से संबंधित आशंकाओं से प्रेरित है।इस संदर्भ में, नेपाल ने एक घरेलू “हैजिंग” (hedging) रणनीति अपनाई है। अगर नेपाल चीन के साथ भारत को काउंटर बैलेंस (counter-balance) करने की सहमति नहीं देता तो चीन नेपाल की अस्पष्टता और भारत के साथ निरंतर भागीदारी से निराश हो सकता है। दूसरी ओर, अगर भारत को लगेगा कि उसका पारंपरिक साथी बीजिंग की और झुक रहा है तो क्षेत्रीय तनाव बढ़ सकते हैं। इस जटिल संदर्भ को देखते हुए, नेपाल को एक नाजुक बैलेंसर की भूमिका निभानी चाहिए ताकि अपने उत्तरी और दक्षिणी पड़ोसियों दोनों से समान दूरी बनाए रखते हए वद अपना विकास आगे बढ़ा सके।
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